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क्रिया-कोश . यह क्रिया प्रथम समय में बद्ध-स्पृष्ट होती है, द्वितीय समय में वेदित होती है और तृतीय समय में निर्जीर्ण हो जाती है। वह बद्ध-स्पृष्ट-उदीरित-वेदित-निर्जरित क्रिया उसी तीसरे समय में अकर्म हो जाती है।
इस कारण से ऐसा कहा गया है कि जब वह जीव सदा समपूर्वक नहीं कम्पता है यावत् उन-उन भावों में नहीं परिणमता है तब मरण के समय वह जीव अन्तक्रिया करता है अर्थात उसकी सकल कर्म क्षय रूप अन्तक्रिया होती है। -(देखो क्रमांक ३७.४ तथा '६७.३)
(ग) से णूणं भंते ! कंखपदोसे णं खीणे समणे णिगंथे अंतकरे भवइ ? अतिमसरीरिए वा ? बहुमोहे वि य णं पुव्विं विहरित्ता, अह पच्छा संवुडे कालं करेइ, तओ पच्छा सिझइ, बुज्झइ, जाव-अंतं करेइ ? हता, गोयमा ! कखपदोसे खीणे, जाव-अतं करे।
--भग० श १ । उ ६ । प्र २६४ । पृ० ४११ क्या कांक्षा प्रदोष के क्षीण होनेपर श्रमण 'निर्ग्र'थ अन्तकर और अन्तिमशरीरी होता है अथवा पूर्वावस्था में बहु मोह वाला होकर विहार करे फिर संवर वाला होकर यदि काल करे--तत्पश्चात क्या सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होता है यावत् सर्व दुःखों का अन्त करता है ।
हाँ । श्रमण निर्यथ कंक्षा प्रदोष के नष्ट हो जाने पर यावत सर्व दुःखों का अन्त करता है। '७३.१३ ४ लवसप्तम देव का जीव और अंतक्रिया :
अस्थि णं भंते ! लवसत्तमा देवा लवसत्तमा देवा ? हंता, अस्थि । से केण?णं भंते ! एवं वुच्चइ-'लवसत्तमा देवा' लवसत्तमा देवा ? गोयमा ! से जहानामए-केइ पुरिसे तरुणे जाव - निउणसिप्पोवगए सालीण वा, वीहीण वा, गोधूमाण वा, जवाण वा, जवजवाण वा, पक्काणं, परियाताणं, हरियाणं, हरियकंडाणं तिक्खेणं णवपज्जणएणं असिअएणं पडिसाहरिया पडिसाहरिया पडिसंखिविया पडिसंखिविया जाव-इणामेव इणामेव त्ति कटु सत्तलवए लुएज्जा, जइ णं गोयमा ! तेसि देवाणं एवइयं कालं आउए पडुप्पए तो गं ते देवा तेणं चेव भवम्गहणेणं सिंज्झता जाव अंतं करता, से तेण?णं जाव लवसत्तमा देवा लवसत्तमा देवा ।
-भग० श० १४ । उ ७ । प्र ११ । पृ० ७०४ लवसप्तम अनुत्तरोपपातिक-सर्वार्थसिद्धि देव के पूर्व मनुष्यभव में (जहाँ से वह मरण पाकर देवभव में उत्पन्न हुआ है ) यदि सात लव कालप्रमाण आयुष्य अधिक होता तो वह लवसप्तमदेव का जीव उसी भव में सिद्ध, बुद्ध, मुक्त होकर यावत् अंतक्रिया करता। अन्त.
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