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________________ को क्रिया जीव रूप अथवा रूपवान् द्रव्यों को अपेक्षा करता है। परिग्रह पापस्थान की क्रिया जीव सर्व द्रव्यों की अपेक्षा स्व-स्वामिभाव से होने वाली मुर्छा से करता है। अवशेष पापस्थान--क्रोध यावत् मिथ्यादर्शनशल्य पापस्थान की क्रिया जीव सब द्रव्यों की अपेक्षा करता है। पापस्थान को किया सभी दण्डक के जीव करते हैं। पापस्थान क्रियाओं से सात अथवा आठ कर्मप्रकृतियों का बंधन होता है। हिंसा की क्रियाओं का निम्न प्रकार से वर्णन है। आरम्भिको कियापंचक में प्रारम्भिकी क्रिया का वर्णन है । ( देखें क्रमांक १४ ) कायिकी क्रियापंचक में हिंसा की सम्पूर्ण क्रिया का वर्णन है अर्थाव जोव किस प्रकार हिंसा करता है इसका यथाक्रम से वर्णन है। तेरहवें क्रियास्थान में पाँच प्रकार की हिंसा की क्रियाओं का वर्णन है, यथा-अर्थदण्डप्रत्य यिकी, अनर्थदण्डप्रत्ययिकी, हिंसादंडप्रत्ययिकी, अकस्मात दंडप्रत्य यिकी, दृष्टिविपर्यासप्रत्ययिकी । ( देखें क्रमांक ४३ से ४७ तक ) अठारह पापस्थान में पहला पापस्थान प्राणातिपात का है। ___ यद्यपि उपर्युक्त क्रियाओं में हिंसा का वर्णन विभिन्न दृष्टिकोण से किया गया है फिर भी सर्वत्र हिंसा की भावना स्पष्ट है । हिंसा की क्रिया को समास में दो भागों में विभक्त किया गया है, यथा--पारितापनिकी क्रिया तथा प्राणातिपातिकी क्रिया! पारितापनिकी क्रिया में जीव को पीड़ा होती है, असाता की उत्पत्ति होती हैं तथा प्राणातिपातिकी में प्राण का काय से वियोग होता है या जीव की पर्याय का विनाश होता है । चौथे प्रतिक्रमण आवश्यक में 'इरियावहियं सुत्तं' में कुछ हिंसा की क्रियाओं का वर्णन है, यथा-अभिहया ( अभिहताः)-आघात पहुँचाना ; वत्तिया ( वर्तिताः)- रज आदि से आच्छादित करना; लेसिया (श्लेषिताः)-भूभि आदि पर मर्दन करना; संघाइया (संघातिताः)-जीवो का संग्रह करना ; संघटिया ( संघहिताः)-स्पर्श करना; परियाविया ( परितापिताः)-असाता उत्पन्न करना ; किलामिया (क्लामिताः )अधमरा-मृतप्राय करना ; उद्दविया (उपद्राविताः)-आतंकित करना; ठाणाओ ठाणं संकामिया ( संक्रामिताः)-एक स्थान से दुमरे स्थान पर अयत्न से रखना; जीवियाओ ववरोविया ( जीवितात् व्यपरो पिताः)-प्राण से रहित करना। ये क्रियाएँ सामान्य दैनिक जीवन में होनेवाली हिंसा की क्रियाएँ है । संरंभ, समारम्भ, आरम्भ-इन तीन शब्दों से हिंसा के क्रम का वर्णन -- आगमों में किया जाता है । संरम्भ अर्थात् हिंसा करने का संकल्प करना या हिंसा करने का आयोजन करना ; समारम्भ अर्थात् परिताप उत्पन्न करना ; आरम्भ अर्थात् प्राणातिपात करना-- इन तीनों का आरम्भिकी क्रिया में समावेश हो जाता है। [ 40 ] "Aho Shrutgyanam
SR No.009528
Book TitleKriya kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1969
Total Pages428
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size9 MB
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