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मैं वर्तन कर रही है अतः उसको साम्परायिकी क्रिया होती है, ऐपिथिकी क्रिया नहीं होती है।
चूंकि ऐयांपथिकी क्रिया ग्यारहवें, बारहवे, तेरहवें गुणस्थान के जीवों को होती है अतः यह कहा जा सकता है कि सांपरायिकी क्रिया पहले से दशवें गुणस्थान तक के जीवों को होती है—इससे पुण्य-पाप दोनों प्रकार को कर्मप्रकृतियों का बन्ध होता है । दशवें गुणस्थान के जीवों के आयुष्य और मोहनीय कर्म को बाद देकर छः कर्मप्रकृतियों का बन्ध होता है। पहले, दूसरे तथा चौथे से सातवें गुणस्थान तक के जीवों के सांपरायिकी क्रिया करते हुए आठ या आयुष्य बाद सात कर्मप्रकृतियों का बन्धन होता है। तीसरे, आठवें, नववें गुणस्थान के जीव सांपरायिकी क्रिया करते हुए आयुष्य बाद सात कर्मप्रकृतियों का बंध करते हैं। सांपरायिकी क्रिया करने वाले जोव के कषाय अवश्य होती है ! टीकाकारों ने कषाय के हेतु से होने वाले कर्मबन्ध को सांपरायिक कहा है ।
सूत्रकृतांग में तेरह क्रियास्थानों का वर्णन है। उसमें प्रत्येक कियास्थान के शेष में "एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावज्जति आहिज्जइ" वाक्य का प्रयोग है। ऐयोपथिक क्रिया का तेरहवें क्रियास्थान में वर्णन किया गया है । इसके शेष में भी उक्त वाक्य का प्रयोग है। सावद्य शब्द का सामान्य अर्थ पापसहित किया जाता है, निरवद्य का अर्थ पापरहित किया जाता है। तेरहवें क्रियास्थान में वर्तमान जीव सिद्ध, बुद्ध, मुक्त होता है, यावत् सर्व दुःखों का अन्त करता है। अतीत के, वर्तमान के तथा भविष्यत् के अरिहन्तभगवंत ने ऐसा प्रतिपादन किया है, करते हैं, करेंगे। सावध का अर्थ पापकर्म का बन्धन ही लिया जाय तो पापकर्म से मुक्त होने का प्रश्न उपस्थित हो जाता है, अतः तेरहवें क्रियास्थान में जो सावध शब्द का प्रयोग हुआ है वह खटकता है। अतः सावध का अनेकान्त दृष्टि से या नय को अपेक्षा से अन्य कोई योग्य अर्थ भी होना चाहिए । एवंभूत नय से एक ऐसा ही अर्थ मिलता है। आचार्य मलय गिरि ने आवश्यक की टोका में एवंभूत नय की अपेक्षा से सावध का अर्थ केवल मात्र कर्मबन्ध किया है। वहाँ पाप-पुण्य की विवक्षा नहीं की गई है। ऐयापथिक क्रिया से कर्म का बंधन होता है ऐसा सिद्धान्त कहता है; अतः सावध का अर्थ एवंभूत नय की अपेक्षा से मात्र कर्मबन्धन की विवक्षा से किया जाय तो तेरहवे क्रियास्थान में 'सावद्य" शब्द का प्रयोग खलता नहीं है ।
जीव अठारह पापस्थानों से क्रिया करता है---यह किया भिन्न-भिन्न अपेक्षा से करता है। प्राणातिपात या पापस्थान की क्रिया वह छः जीवनिकाय की अपेक्षा से करता है: मृषावाद पापस्थान की क्रिया सब द्रव्यों की अपेक्षा करता है। अदत्तादान पापस्थान की क्रिया ग्रहण और धारण करने योग्य द्रव्यों की अपेक्षा ही करता है। मैथुन पापस्थान
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"Aho Shrutgyanam"