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बड़ी विशेषता यह है कि यह क्रिया भेदभाव रहित क्षुद्रकायी कुंथु-कीट या स्थूलकायी हाथी, सेठ या गरीब, राजा या रङ्क, सबको समान भाव से लगती है, यदि पाप कर्मों के नहीं करने का उनके प्रत्याख्यान नहीं हो। क्रमांक '१६६२ में अप्रत्याख्यान क्रिया का दर्शनिक दृष्टिकोण से विवेचन किया गया है।
क्रिया से बन्धने वाले कर्म की स्थिति की अपेक्षा क्रिया के दो भेद किये गये है, यथा-ऐ-पथिकी क्रिया, साम्परायिकी क्रिया । ऐपिथिकी क्रिया की स्थिति दो समय की होती है। इस क्रिया से प्रथम समय में कर्म बद्ध और स्पृष्ट होते हैं, द्वितीय समय में वे कर्म उदीरित-वेदित होते है, तृतीय समय में निर्जरित होते हैं । टीकाकार के अनुसार यह क्रिया उपशांतमोह, क्षीणमोह, सयोगी केवली गुणस्थान के जीवों के होती है। सयोगी जीव क्षण मात्र के लिए भी अग्नि में तपते हुए जलबिन्दु की तरह, निश्चल नहीं रह सकते हैं अतः यह ऐपिथिकी क्रिया सयोगी केवली के भी होती है ! जाने, पाने, उठने, बैठने आदि की स्थूल क्रिया से लेकर यावत् आँख की पलक हिलने मात्र की सूक्ष्मातिसूक्ष्म क्रिया से ऐपिथिकी क्रिया होती है। ऐ-पथिकी क्रिया से केवलमात्र एक कर्मप्रकृति का बन्धन होता है। और वह कर्मप्रकृति-सातावेदनीय कर्मप्रकृति है । ऐपिथिकी क्रिया से सातावेदनीय कर्मप्रकृति व्यतिरिक्त अन्य किसी कर्मप्रकृति का बन्धन नहीं होता है । साम्परायिक क्रिया से जब सातावेदनीय कर्मप्रकृति का बन्ध होता है तब उसकी जघन्य स्थिति बारह मुहूर्त की होती है।
जिस अनगार के क्रोध-मान-माया लोभ व्युच्छिन्न हो गये हैं उसके ऐपिथिकी क्रिया होती है, साम्परायिकी क्रिया नहीं होती है तथा जिसके क्रोध-मान-माया-लोभ व्युच्छिन्न नहीं हुए हैं उसके साम्परायिकी क्रिया होती है, ऐपिथिकी क्रिया नहीं होती है। सूत्र के अनुसार चलते हुए अनगार के ऐयापथिकी क्रिया होती है तथा उत्सूत्र चलते हुए अनगार के सांपरायिकी क्रिया होती है । उपयोगपूर्वक गमनादि करते हुए, वस्त्रपात्र आदि लेते, रखते हुए संवृत अनगार को ऐर्यापथिकी क्रिया होती है, साम्परायिकी क्रिया नहीं होती है । अनुपयोगपूर्वक गमनादि करते हुए, वस्त्र-पान लेते हुए अनगार को सांपयिकी क्रिया होती है, ऐपिथिको क्रिया नहीं होती है।
____ अगल-बगल युगप्रमाण भूमि को देखकर चलते हुए भावितात्मा अनगार के पैर के नीचे यदि कोई छोटा जानवर या सूक्ष्म जन्तु आकर कष्ट पावे या उसका प्राणवियोग हो जाय तो उस अणगार को ऐयोपथिकी क्रिया होती है, सांपरायिकी क्रिया नहीं होती है क्योंकि उस अनगार के राग-द्वेष क्षीण हो गये है।
सामायिक करते हुए श्रमणोपासक को सांपरायिकी क्रिया होती है, ऐपिथिकी किया नहीं होती है क्योंकि उसकी आत्मा अधिकरण होती है, उसकी आत्मा अधिकरण
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"Aho Shrutgyanam"|