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क्रिया-कोश
१६३ जाव-पंचहिँ किरियाहिं पुट्ठा, जे वि य से जीवा अहे वीससाए पञ्चोवयमाणस्स उवम्गहे वट्ठति ते वि य णं जीवा काइयाए-जाव-पंचहिं किरियाहिं पुट्ठा।
-भग० श १७ । उ १ । प्र ५-६ । पृ० ७५४ यदि कोई पुरुष ताड़ के वृक्ष पर चढ़े तथा ताड़वृक्ष पर चढ़कर उस वृक्ष के ताड़फल को कैंपावे तथा नीचे गिरावे तो उस पुरुष को पेड़ पर चढ़ने से लेकर फल गिराने तक कायिकी आदि पाँचों क्रियाएँ स्पृष्ट होती हैं। जिन जीवों के शरीर से ताड़ का वृक्ष बना, ताड़फल बना उन जीवों को भी पाँचो क्रियाएँ स्पृष्ट होती हैं।
उस ताड़फल के ताड़-वृक्ष से अलग होने के पश्चात जब वह ताड़फल अपने गुरुभार से नीचे गिरता है, तथा नीचे गिरते हुए उस ताड़फल के द्वारा जिन जीवों का हनन होता है यावत् प्राण-वियोग होता है तब तक उस फल तोड़ने वाले पुरुष को फल के स्वगुरु-भार से गिरने से लेकर प्राण वियोग पर्यन्त चार क्रियाएँ स्पृष्ट होती हैं।
जिन जीवों के शरीर से ताड़ का वृक्ष बना, उन जीवों को चार क्रियाएँ स्पृष्ट होती हैं ; जिन जीवों के शरीर से ताड़ का फल बना उन जीवों को पाँच क्रियाएं स्पृष्ट होती है तथा वैस्रसिक-स्वाभाविक रूप से अपने गुरुभार से गिरते हुए उस ताइफल के जो जीव उपग्राहक-उपकारक होते है उन जीवों को भी कायिक आदि पाँच क्रियाएँ स्पृष्ट होती हैं।
विश्लेषण :-- ऊपरोक्त पाठ में क्रिया के छः आलापक कहे गये हैं :
१:--वृक्ष पर चढ़कर हिलाते व गिराते हुए पुरुष के पाँच क्रियाएँ होती हैं क्योंकि वह पुरुष ताड़फल तथा ताड़फल के आश्रित जीवों की साक्षात् हिंसा करता है अतः उसको प्राणातिपातिकी क्रिया होती है ।
२:--जिन जीवों के शरीर से ताड़ का वृक्ष, ताड़ का फल बना उन जीवों को भी पाँच क्रियाएँ होती हैं क्योंकि ताड़ का वृक्ष तथा उसका फल स्पर्शादि के द्वारा अन्य जीवों का साक्षात् हनन करता है।
३:-स्वाभाविक गुरुभार से गिरते हुए ताड़फल के द्वारा जीवों का हनन होता है यावत् प्राणवियोग होता है उससे फल गिराने वाले व्यक्ति को चार क्रियाएँ होती हैं क्योंकि स्वाभाविक गुरुभार से गिरते हुए फल के द्वारा जो हिसा होती है उसमें पुरुष साक्षात्कारण नहीं है लेकिन परम्परा कारण है अतः प्राणातिपातिकी क्रिया नहीं होती है।
४:- इस स्थिति में जिन जीवों के शरीर से ताड़ का वृक्ष बना उन जीवों को चार क्रियाएँ होती हैं क्योंकि अपने गुरुभार से गिरते हुए ताड़ के वृक्ष के जो हिंसा होती है उसमें ताड़ का वृक्ष भी साक्षात् कारण नहीं है लेकिन परम्परा कारण है अतः प्राणातिपातिकी क्रिया नहीं होती है।
"Aho Shrutgyanam"