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क्रिया - कोश
नियतिवश हो रहे हैं-नियतिकृत है ।
कर्त्ता मैं नहीं हूँ —बल्कि ये सब कार्य उसी प्रकार दूसरे पुरुष का दुःख भोगना या शोक संतप्त होना या झरना या रुदन करना या पीड़ा पाना या परिताप पाना-- आदि सब उस अन्य पुरुषकृत नहीं है— सब नियतिकृत है ।
अस्तु इस संसार में जो त्रस स्थावर प्राणी हैं वे शरीर को धारण करते हैं, परिभ्रमण को प्राप्त होते हैं, शरीर से पृथक् होते हैं, अवस्था विशेष को प्राप्त होते हैं - यह सब नियति के हो अधीन होता है ।
वे नियतिवादी कहते हैं क्रिया, अक्रिया, सुकृत, दुष्कृत, कल्याण, पुण्य, पाप, साधु, असाधु, सिद्धि, असिद्धि, नरक, स्वर्ग आदि कुछ नहीं है । जो कुछ है सो नियति है और उसके आधीन सब कार्य हो रहे हैं ।
६२६४ अक्रियावादी जीव और दंडकजीवा णं भंते !"
जहा असुरकुमारा ।
पूरे पाठ तथा अर्थ के लिए देखिये क्रमांक ६२४ ३ ३ । उक्त पाठ में से अक्रियावादी संबंधी विशेषार्थ
अलेशी, समदृष्टि, ज्ञानी, मति यावत् केवलज्ञानी, संज्ञा में उपयोग रहित, अवेदक, अकषायी, अयोगी जीव अक्रियावादी, अज्ञानवादी, विनयवादी नहीं होते हैं, केवल क्रियावादी होते हैं ।
सममिथ्यादृष्टि जीव क्रियावादी, अक्रियावादी नहीं होते हैं; अज्ञानवादी, विनयवादी होते हैं ।
कृष्णपाक्षिक, मिथ्यादृष्टि, अज्ञानी, मति श्रुत-विभंग अज्ञानी जीव अक्रियावादी, अज्ञानवादी तथा विनयवादी होते हैं ।
पृथ्वी - अप् अग्नि वायु-वनस्पतिकाय तथा विकलेन्द्रिय जीव अक्रियावादी, अज्ञानवादी होते हैं, बाको दण्डक के जीव चारों वादी होते है अतः वे अक्रियावादी भी होते हैं । '६२६५ अक्रियावादी जीव और आयुष्य का बंधन -
अकिरियावाई णं भंते ! जीवा किं नेरइयाउयं पकरेंति, तिरिक्ख० - पुच्छा | गोयमा ! नेरइयाउयं वि पकरेंति, जाव देवाउयं वि पकरेंति । ( १२ )
सहसा णं भंते! जीवा किरियाबाई किं नेरइयाउयं पकरेंति -पुच्छा । गोयमा ! नो नेरइयाज्यं - एवं जहेव जीवा तद्देव अलेस्सा वि चउहिं वि समोसर - हि भाणियव्वा । ( प्र १३ )
कण्हलेस्सा णं भंते! जीवा किरियावाई कि नेरइयाउयं पकरेंति -पुच्छा । गोयना ! मो नेरइयाज्यं पकरेंति, नो तिरिक्खजोणियाउयं पकरेंति, मणुस्साउयं
"Aho Shrutgyanam"
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