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क्रिया-कोश
२६४ नहीं है । सुख हो अथवा दुःख हो, वह सुख-दुःख से द्धिक-- किसी निमित्त से होनेवाला हो या असैद्धिक बिना किसी निमित्त से होने वाला हो उसको सभी जीव पृथक्-पृथक् भोगते हैं; वह सुख-दुःख स्वयं तथा दूसरे के द्वारा कृत नहीं है किन्तु वह सांगतिक-नियतिकृत है ।
अहावरे चउत्थे पुरिसजाए नियतिवाइए ति आहिजइ ! xxx । इह खलु दुवे पुरिसा भवंति-एगे पुरिसे किरियमाइक्खइ, एगे पुरिसे नो किरियमाइक्खइ । जे य पुरिसे किरियमाइक्खइ जे य पुरिसे नो किरियमाइक्खइ दो वि ते पुरिसा तुला एगठ्ठा, कारणमावन्ना।
बाले पुण एवं विष्पडिवेदेति कारण-मावन्ने- अहमंसि दुक्खामि वा सोयामि वा जूरामि वा तिप्पामि वा पीडामि वा परितापामि वा अहमेय-मकासि ; परो वा जं दुक्खइ वा सोयइ वाजूरइ वा तिप्पइ वा पीडइ वा परितप्पइ वा परो एवमकासि । एवं से बाले सकारणं वा परकारणं वा एवं विप्पडिवेदेति कारणमावन्ने ।
मेहावी पुण एवं विपडिवेदेति कारणमावन्ने अहमंसि दुक्खामि वा सोयामि वा जूरामि वा तिप्पामि वा पीडामि वा परितप्पामि वा, नो अहं एवमकासि। परो वा जं दुक्खइ वा जाव परितप्पइ वा णो परो एवमकासि एवं से मेहावी सकारणं वा परकारणं वा एवं विपडिवेदेति कारणमावन्ने--से बेमि पाईणं वा ६ जे तस-थावरा पाणा ते एवं संघायमागच्छंति, ते एवं विपरियासमावज्जंति, ते एवं विवेगमागच्छति ते एवं विहाणमागच्छति ते एवं संगतियंति उवेहाए ।
नो एवं विप्पडिवेदेति, संजहा-किरिया इ वा जाव ( अकिरिया इ वा सुकडे इ वा दुक्कडे इ वा कल्लाणे इ वा पावए इ वा साहु इ वा असाहु इ वा सिद्धि इ वा असिद्धि इ वा) निरए इ वा अनिरए ३ वा।
--सूय० श्रु.२ 1 अ १सू१२ | पृ० १४० इस संसार में दो प्रकार के मनुष्य है यथा--एक पुरुष जो क्रिया का समर्थन करता है, दूसरा जो क्रिया का निषेध करता है वे दोनों पुरुष एक समान है क्योंकि क्रिया तथा अक्रिया दोनों ही एक ही कारण-नियति के अधीन वशवर्ती हैं अर्थात क्रिया करने का कारण भी नियति है, क्रिया नहीं करने का या अक्रिया का कारण भी नियति है । अतः दोनों का ही कथन असम्यक् है ।
स्वकारण अथवा परकारण से कृत सुख-दुःखादि में पुरुषाकार को जो कारण मानते हैं उनका कथन सम्यग् नहीं है ।
मैं जो दुःख भोग रहा हूँ या शोक संतप्त हो रहा हूँ या झूर रहा हूँ या रुदन कर रहा हूँ या पीड़ा पा रहा हूँ या परिताप पा रहा हूँ-ये सब कार्य मैं नहीं कर रहा हूँ, इनका
"Aho Shrutgyanam"