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क्रिया-कोश क्रियां कुर्वन्नात्मा न विद्यते, सर्वव्यापित्वेनामूर्तत्वेन चाकाशस्येवात्मनो निष्क्रियत्वमिति, तथा चोक्तम्-'अकर्ता निर्गुणो भोक्ता, आत्मा साङ्ख्यनिदर्शने।" 'एवम्' अनेन प्रकारेणात्माऽकारक इति ।
- सूय० १ १ अ१। उ १ । सू १३ । टीका आत्मा अमूर्त, नित्य, और सर्वव्यापी है इसलिए वह कर्ता नहीं हो सकता है और इसी कारण वह दूसरे के द्वारा क्रिया करानेवाला भी नहीं हो सकता है । आत्मा स्वयं किसी क्रिया में प्रवृत्त नहीं होता है और दूसरे को भी किसी क्रिया में प्रवृत्त नहीं करता है। आत्मा मुद्राबिम्बोदयन्याय या जपास्फटिकन्याय से यद्यपि स्थिति क्रिया, भोगक्रिया करता है तथापि वह समस्त क्रिया का कर्त्ता नहीं है। वह आत्मा एक देश से अन्य देश में जाना आदि परिस्पंदनात्मक सभी क्रिया नहीं करता है क्योंकि वह सर्वव्यापी और अमूर्त होने के कारण आकाश की तरह निष्क्रिय है । कहा भी है—सांख्यवादियों के मत में आत्मा अकर्ता, निगुण और कर्मफल का भोक्ता है । इस प्रकार आत्मा अकारक-अकर्ता है ।
१५ नियतिवादी
.१ परिभाषा / अर्थ :-- नियतिवादपक्षाश्रय्येवं विप्रतिवेदयति जानीते कारणमापन्न इति नियतिरेव कारणं सुखाद्यनुभवस्य ।
---सूय श्रु २ । अ १ । सू १२ ! टीका सुख-दुःखादि अनुभवों का कारण मात्र नियति ही है-ऐसा कहने वालों को नियतिवादी कहा जाता था।
२ नियतिवादी के मत का प्रतिपादन
आघायं पुण एगेसिं, उववन्ना पुढो जिया । वेदयंति सुहं दुक्खं, अदुवा लुप्पंति ठाणओ ।। न तं सयं कडं दुक्खं, कओ अन्नकडं च णं । सुहं वा जइ वा दुक्खं, सेहियं वा असेहियं ।। सयं कडं न अन्नेहिं, वेदयंति पुढो जिया। संगइयं तं तहा तेसिं, इहमेगेसिमाहियं ।।
-सूय • श्रु १ । अ १ । उ २ । गा १ से ३ । पृ० १०२ लोक को सांगतिक (नियति के वश ) मानने वाला एक मत था जो नियतिवादी के नाम से अभिहित किया जाता था।
जीव पृथक्-पृथक् उत्पन्न होते है और पृथक-पृथक् सुख-दुःख भोगते हैं अथवा वे एक स्थान से दूसरे स्थान में संक्रमण करते हैं। वह सुख-दुःख स्वयं कृत नहीं है; अन्य कृत भी
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