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क्रियाकोश
१३५ द्वेष क्षीण नहीं हुए है, जो संवृत्त अणगार सूत्रानुसार चलता है, उसके राग-द्वेष क्षीण हो गये है।
___ अतः यह कहा गया है कि भावितात्मा अनगार के क्रोध-मान-माया-लोभ क्षीण होने से ऐर्यापथिकी क्रिया होती है, सांपरायिकी क्रिया नहीं ।
६४.२.३ ऐापथिकी साम्परायिकी क्रिया-द्वयक और श्रमणोपासक
समणोवासयरस णं भंते ! सामाश्यकडस्स समणोवासए अच्छमाणस्स तस्स गं भंते ! किं इरियावहिया किरिया कज्जई, संपराइया किरिया कज्जइ ? गोयमा ! नो इरियावहिया किरिया कजइ, संपराइया किरिया कज्जइ ।
से केण?णं जाव संपराश्या ?
गोयमा ! समणोवासयस्स णं सामाझ्यकडरस समणोवासए अच्छमाणस्स आया अहिगरणी भवइ आयाऽहिगरणवत्तियं च णं तस्स नो इरियावहिया किरिया कज्जइ, संपराइया किरिया कज्जइ से तेणटणं जाव संपराइया।
---भग० श ७ । उ १ । प्र ५। पृ० ५०६ श्रमण-उपाश्रय में बैठकर अर्थात साधु-सान्निध्य में सामायिक करता हुआ श्रमणोपासक सांपराधिक क्रिया करता है, ऐपिथिक क्रिया नहीं करता है क्योंकि श्रमणउपाश्रयमें सामायिक करते हुए श्रमणोपासक की आत्मा अधिकरण होती है तथा उसको आत्मा अधिकरण में वर्तन कर रही है अर्थात् अवस्थित है इसलिए उसको साम्परायिकी क्रिया होती है, ऐर्यापथिकी क्रिया नहीं होती है ।
विश्लेषण :-साधु-सान्निध्य में सामायिक करते हुए श्रमणोपासक की आत्मा कषायनिरुद्ध होनी चाहिए अतः यह आशंका होती है कि उसे साम्परायिकी क्रिया क्यों होती है । सामायिक करते हुए श्रमणोपासक के हल, शकटादिक जो कषाय के आश्रयभूत अधिकरण है उनसे वह निवृत्त नहीं हुआ है अतः उसकी आत्मा इन अधिकरणों में अर्थात शस्त्रों में वर्तन कर रही है अतः उस श्रमणोपासक को साम्परायिकी क्रिया होती है, ऐपिथिकी क्रिया नहीं होती है।
६५ आरम्भिकी क्रिया-पंचक:
[ आरम्भिकी, पारिग्रहिको, मायाप्रत्ययिकी, अप्रत्याख्यान क्रिया तथा मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी-इन पाँच क्रियाओं का एक क्रियापंचक कहा गया है और यह आरम्भिकी क्रियापंचक के नाम से विख्यात है।
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