________________
१३६
क्रिया-कोशे आरंभिकी क्रियापंचक का विवेचन सामान्यतः कर्मास्रव की अपेक्षा किया गया है।
मिथ्यात्वी प्राणी के-मिथ्यादर्शनप्रत्यायिकी क्रिया लगती है और जिसको मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी क्रिया लगती है उसको आरंभिकी आदि बाकी चारों क्रियाएँ अवश्य लगती हैं और उसके मिथ्यात्व आस्रव होता है ।
अविरती प्राणी के-अप्रत्याख्यान क्रिया लगती है तथा जिसको अप्रत्याख्यान क्रिया लगती है उसको आरंभिकी आदि तीन क्रियाएँ अवश्य लगती है और उसके अवतआस्रव होता है ।
__ सकषायी प्राणी के–मायाप्रत्ययिकी क्रिया लगती है तथा जिसको मायाप्रत्ययिकी क्रिया लगती है उसको आरंभिकी और पारिग्रहिकी क्रिया कदाचित् लगती है और कदा. चित नहीं लगती है और उसको कषाय-आस्रव होता है ।
सकषायी (लोभ की प्रबलता वाले) जीव को पारिग्रहिकी क्रिया लगती है तथा जिसको पारिग्रहिकी क्रिया लगती है उसको आरंभिकी क्रिया अवश्य लगती है और उसके कषायात्रव होता है ; परिग्रह की 'अजयना' में प्रमाद भाव भी रहता है अतः प्रमाद-आस्रव भी होता है।
सप्रमादी तथा सयोगी ( अशुभ योगी) जीव के आरंभिकी क्रिया लगती है तथा उसको प्रमाद और योगास्रव होता है । . उपर्युक्त कथन से यह स्पष्ट है कि इन पाँचों क्रियाओं का पारस्परिक अविनाभाव संबंध भी है अतः इन क्रियाओं का समुदाय में विवेचन किया गया है। ]
'६५.१ नाम :
__कइ णं भंते ! किरियाओ पन्नत्ताओ ? गोयमा ! पंच किरियाओ पन्नत्ताओ, तं जहा–आरंभिया, परिग्गहिया, मायावत्तिया, अपञ्चक्खाणकिरिया, मिच्छादसणवत्तिया।
-पण्ण० प २२ । सू १६२१ । पृ० ४८२ --ठाण० स्था ५ । उ २ । सू ४१६ । पृ० २६२ । (केवल उत्तर) पाँच क्रियाओं का एक पंचक कहा गया है यथा--१ आरंभिकी, २ पारिग्रहिकी, ३ मायाप्रत्ययिकी, ४ अप्रत्याख्यानक्रिया तथा ५ मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी । ६५.२ जीवदंडक और आरंभिकी क्रियापंचक :
(क) नेरइयार्ण भंते ! कइ किरियाओ पन्नत्ताओ ? गोयमा ! पंच किरियाओ पन्नताओ. तंजहा-आरंभिया जाव मिच्छादसणवत्तिया । एवं जाव वेमाणियाणं।
-~-पण्ण° प २२ । सू १६२७ । पृ० ४८२-८३
"Aho Shrutgyanam"