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क्रिया-को
रणयाए विणो दहणयाए चउहिं । जे भविए उस्सवणयाए वि, णिसिरणयाए वि, दहणंया वि, तावं च णं से पुरिसे काइयाए - जाव - पंचहि किरिया हि पुट्ठे । से तेणट्टेणं गोयमा० ।
-- भग० श ११उ८ । प्र२६६-६७ । पृ० ४०८-६ कोई पुरुष कच्छार यावत् वन के विषम स्थानों में ( देखो क्रमांक ६६ १६१ ) शिकार या अन्य उद्देश्य से जाकर वहाँ तृण एकत्रित करके उसमें अग्नि निक्षेप करे तो उस पुरुष की कदाचित् तीन, कदाचित् चार, कदाचित् पाँच क्रियाएँ होती हैं ।
जब तक वह पुरुष घास के तिनके एकत्रित करता है तब तक उसको तीन क्रियाएँ होती है; तृण एकत्रित करके उसमें आग डालता है किन्तु जलाता नहीं है तब तक उसको चार क्रियाएँ होती हैं ; तृण एकत्रित कर तथा अग्नि डाल करके जब वह तृण-समूह को जलाता है तब उस पुरुष को कायिकी आदि पाँचों क्रियाएँ होती हैं ।
'३ मृगवधिक का :
पुरिसे णं भंते! कच्छसि वा-जाव- वणदुग्गंसि वा मियवित्तीए, मियकप्पे, मियपणिहाणे, मियवहाए गंता 'एए मिय' न्ति काउं अण्णयरस्स मियस्स वहाए उसुं णिसिर, तओ णं भंते ! से पुरिसे कइ करिए ? गोयमा ! सिय तिकिरिए, सिय चकिरिए, सिय पंचकिरिए ।
सेकेणणं ? गोयमा ! जे भविए णिसिरणयाए, णो विद्धंसणयाए वि, णो मारणयाए वि तिहिं । जे भविए णिसिरणयाए वि, विद्धंसणयाए वि, णो मारण्याए चउहिं । जे भविए णिसिरणयाए वि, विद्धंसणयाए वि, मारणयाए वि, तावं च णं से पुरिसे - - जाव - पंचहि किरियाहि पुट्ठे । से तेणटुणं गोयमा ! सिय तिकिरिए, सिय चउकिरिए, सिय पंचकिरिए । --भग० श १उ८ । प्र२६८-६६ / पृ० ४०६ शिकार संकल्पी शिकार में दत्तचित्त, मृग - शिकार से आजीविका चलाने वाला कोई पुरुष कच्छार यावत वन के विषम स्थानों में ( देखो क्रमांक ६६ १६१ ) मृग - शिकार के लिए जाकर 'ये मृग हैं' ऐसा सोचकर किसी मृग या अन्य पशु को मारने के लिए बाण छोड़ता है तो उस पुरुष को कदाचित् तीन, कदाचित चार, कदाचित पाँच क्रिया होती है ।
जब तक वह पुरुष बाण छोड़ता है परन्तु मृग को बींधता नहीं है तथा मारता नहीं है तब तक वह पुरुष तीन क्रिया से स्पृष्ट होता है। जब वह पुरुष बाण फेंककर मृग को बींधता है लेकिन मृग को मारता नहीं है तब तक वह पुरुष चार क्रिया से स्पृष्ट होता है, जब वह पुरुष बाण फेंककर मृग को बींधकर, उसको मारता है तब वह पुरुष कायिकी आदि पाँचों क्रियाओं से स्पृष्ट होता है अर्थात् उसको पाँचों क्रियायें होती हैं !
"Aho Shrutgyanam"