________________
क्रिया कोश
१७७ जे भविए उहवणयाए वि, बंधणयाए वि, मारणयाए वि, तावं च णं से पुरिसे काइयाए, अहिगरणियाए, पाउसियाए जाव पाणाइवायकिरियाए -पंचहि किरियाहिं पुढे, से तेण?णं जाव पंचकिरिए। -भग० श १ । उ । प्र २६४-६५ । पृ० ४०८
शिकार-संकल्पी, शिकार में दत्तचित्त, मृग-शिकार से आजीविका चलाने वाला कोई पुरुष कच्छार, जलाशयादि, झीलादि, जल से परिवेष्टित स्थान, घास से परिपूर्ण स्थान, नदी से परिवेष्टित भूमि में, अंधकारावृत स्थान में, अटवी में, गहन अटवी में, पर्वत में, पर्वत के दुर्गम स्थलों में, वन में, वन के विषम स्थानों में मृग के शिकार के लिए जाकर—'ये मृग हैं' ऐसा सोचकर किसी मृग या अन्य पशु को मारने के लिए कूटपाश रचे अर्थात् गड्ढा खोदे या जाल फैलावे तो उस पुरुष को कदाचित् तीन, कदाचित् चार, कदाचित पाँच क्रिया होती है।
जब तक वह पुरुष कूटपाश रचने में उद्यत है, मृग को बाँधता नहीं है तथा मारता नहीं है तब तक वह पुरुष कायिकी-आधिकरणिकी-प्राषिको-इन तीन क्रियाओं से स्पृष्ट होता है।
जब तक वह पुरुष कूटपाश रच कर मृग को बाँधता है लेकिन मारता नहीं है तब तक वह पुरुष कायिकी, आधिकरणिकी, प्राद्वेषिकी, पारितापनिकी-इन चार क्रियाओं से स्पृष्ट होता है।
और जब वह पुरुष कूटपाश रचकर, मृग को बाँधकर, उसको मारता है तब वह पुरुष कायिकी आदि पाँचों क्रियाओं से स्पृष्ट होता है अर्थात् उसको पाँचौं क्रियायें होती हैं।
विश्लेषण--मृग-शिकारी शिकार के निमित्त जब घर से वन–जंगलों में जाता है उसके कायिकी क्रिया होती है ; जाने के समय जाल, कुदाल आदि अधिकरण ग्रहण करता है तथा वन–जंगल में जाकर कूटपाशादि रचता है तब उसको आधिकरणिकी क्रिया होती है ; मारने के उद्देश्य से प्रदेष उत्पन्न होता है तथा शिकार को देखकर प्रद्वेष में वृद्धि होती है तब उसको प्रादेषिकी क्रिया होती है-ये तीनों क्रियाएँ जब भी होती हैयुगपत होती हैं। '२ मृगवधिक का :
.. पुरिसे णं भंते ! कच्छंसि वा--जाव-वणविदुग्गंसि वा तणाई ऊस विय, ऊसविय अगणिकायं णिसिरइ । तावं च णं से भंते ! पुरिसे कइकिरिए ? गोयमा ! सिय तिकिरिए, सिय चउकिरिए, सिय पंचकिरिए।
से केण?णं ? गोयमा ! जे भविए उस्सवणयाए तिहिं । उस्सवणयाए वि, णिसि२३
"Aho Shrutgyanam"