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क्रिया-कोश किसी गृहस्थ ने अपने स्वार्थ से-अपने रहने के लिए किसी भवन-गृह-धर्मशालाउपाश्रय आदि का निर्माण किया हो उसमें रहने से, उसको भोगने से साधु को अल्प सावद्यक्रिया अर्थात सावद्य क्रिया नहीं होती है।
इस तरह के वासस्थान के भोगने वाले साधु को केवल एक पक्ष शुद्ध साधु-मार्ग का सेवन करने वाला कहा गया है। टीकाकार के अनुसार ऐसे साधु में सम्पूर्ण भिक्षुभाव होता है।
-देखो भिक्षु और क्रिया .०४.१६ अभिक्कंतकिरिया- अभिक्रांतक्रिया
-आया० श्रु २। अ २! उ २। सू ३६।पृ० ५४ यदि कोई भवन या वासस्थान ब्राह्मण-श्रमण-भिक्षु भिखारी आदि के रहने के उद्देश्य से बनाया गया हो और वहाँ ब्राह्मण भिखारी आदि रहते हों, उस स्थान को यदि साधु भोगे तो साधु को अभिक्रान्त क्रिया होती है ।
.. टीकाकार के अनुसार ( वसतिर्भवत्यल्पदोषाचेवा ) अभिकान्त क्रिया में अल्प दोष होता है ।
-देखो भिक्षु और क्रिया
.०४.१७ उचारपासवणकिरिया--उत्चचारप्रस्त्रवणक्रिया
-आया० श्रु २ । अ १०। सू१ । पृ० ८१ मल-मूत्रादि की प्रक्रिया अर्थात् मलमूत्रादि का वेग उठना।
'आयारांग' के द्वितीय श्रुतस्कंध, दशवें अध्ययन में साध्वाचार की उच्चारप्रस्रवण क्रिया का विवेचन है। उच्चारप्रस्त्रवण अर्थात् मल-मूत्रादि की क्रिया भिक्षु-साधु को कैसे, किस प्रकार करनी चाहिए-इस संबंधी विवेचन किया गया है । जब साधु को उच्चारप्रस्रवण अर्थात् मल-मूत्रादि को आवाधा उत्पन्न होती है तो अपना पात्र न हो तो अन्य साधार्मिक साधु का पात्र लेकर आवाधा को एकान्त में-निर्जीव स्थान में परठना या मलमूत्रादि करना चाहिए।
•०४.१८ उत्तरकिरियं - उत्तरक्रिया
-भग० श ५। उ २। प्र११। पृ० ४७२ मूल - कयाणं भंते ! ईसिंपुरेवाया ?
गोयमा ! जया णं वाउयाए उत्तरकिरियं रियइ, तया णं ईसिंपुरेवाया
जाव-वायंति। टीका--"उत्तरकिरियं" ति वायुकायस्य हि मूलशरीरमौदारिकम, उत्तरं तु वैक्रियम्, अतः उत्तरा उत्तरशरीराश्रया क्रिया गतिलक्षणा यत्र गमने तदुत्तरक्रियम् तद्यथा भवतीत्येवं रीयते गच्छति ।
"Aho Shrutgyanam"