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क्रिया-कोश
प्रवादी ने पूछा- असंज्ञी दृष्टान्त क्या है ?
आचार्य ने कहा- यद्यपि संसार में जो असंज्ञी प्राणी यथा-- पृथ्वीकाय अप्कायअग्निकाय-वायुकाय-वनस्पतिकाय — विकलेन्द्रिय तथा संमुच्छिम पंचेन्द्रिय हैं, उनके तर्क शक्ति नहीं है, संज्ञा अर्थात् पर्यालोचना शक्ति नहीं है, प्रज्ञा अर्थात् बुद्धि नहीं है, मन नहीं है, वचन नहीं है, वे स्वयं कोई कार्य नहीं करते हैं, दूसरों से करवाते भी नहीं हैं तथा करते हुए के अनुमोदन के भाव भी उनमें नहीं है तथापि वे बाल, अज्ञानी जीव सर्व प्राण-भूत- जीव-सत्त्वों के प्रति अमित्रभृत हैं, बुरे विचारवाले हैं, निरन्तर शठ हैं, तथा हिंसक चित्तवृत्ति वाले हैं । यद्यपि वे प्राणतिपात यावव मिथ्यादर्शनशल्य अठारह पापों को नहीं करते हैं तो भी अविरति की अपेक्षा उनके पापकर्म का बंध होता है । यद्यपि वे असंज्ञी जीव मन और वचन के व्यापार से रहित हैं तथा वे सर्व प्राण-भूत जीव-सत्त्वों को दुःख-शोक-जूरण नहीं उपजा सकते हैं - मन-वचन-काया से पीड़ा नहीं दे सकते हैं, यष्टि-मुष्टि से प्रहार नहीं कर सकते हैं, परिताप नहीं दे सकते हैं तथापि प्रत्याख्यान के अभाव में वे सर्व प्राण- भूत-जीव सत्त्वों को दुःख-शोक-जूरण- पीड़ा-पीटन-परिताप-वध-वन्धन इत्यादि परिक्लेश उपजाने से अविरत होते हैं ।
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अतः वे पृथ्वीकायिक आदि जीव असंज्ञी होते हुए भी रात-दिन प्राणतिपात यावत् परिग्रह यावत् मिथ्यादर्शनशल्य अठारह पापकर्मों का बन्ध ग्रामघातक की तरह करते हैं । प्रवादी ने पूछा- एवंभूत वेदान्तवादियों का प्रतिपादन है कि पुरुष मर कर पुरुष रूप में जन्म लेता है, पशु मर कर पशु रूप में जन्म लेता है, जो योनि है उसमें मर कर उसी योनि में जन्म लेता है, तो क्या असंजी मर कर असंज्ञी होता है ?
आचार्य ने कहा- सर्वयोनिक जीव संज्ञी होकर असंज्ञी भी होते हैं, असंज्ञी होकर संज्ञी भी होते हैं ।
वे संज्ञी या असंज्ञी होकर पापकर्मों को पृथक् किये बिना, खपाये बिना, छेदे बिना, तपाये बिना, कर्मवशीभूत असंज्ञी की काया से संज्ञी की काया में, संज्ञी की काया से असंज्ञी की काया में, संज्ञी की काया से संज्ञी की काया में, असंज्ञी की काया से असंज्ञी की काया में संक्रमण करते हैं ।
इसलिये सब संज्ञी या असंज्ञी जीव मिथ्या आचरण वाले, निरन्तर शठ, हिंसक चित्तवृत्तियों वाले यावत् प्राणातिपात यावत् मिथ्यादर्शनशल्य दोषों से सहित हैं ।
उपर्युक्त दो दृष्टान्तों का निष्कर्ष :
एवं खलु भगवया अक्खाए असंजए, अविरए, अप्पडिह्य-पच्चक्खाय- पाव - कम्मे, सकिरिए, असंबुडे, एगंतदंडे, एगंतबाले, एगंतसुत्ते से बाले अवियारमण-वयणं-कायवक्क े सुविणमवि न पासइ, पावे य से कम्मे कज्जइ ।
--सूय० श्र २ । अ ४ । सू ४ / पृ० १६८
"Aho Shrutgyanam"