________________
क्रिया-कोश
०४१० अण्णमण्णकिरिया -- अन्योन्यक्रिया
हं
-आया० अ २ । अ १३-१४१ सू ७७ ० ८७,८८
पारस्परिक अर्थात् एक दूसरे के प्रति शरीर-अंगोपांगादि सम्बन्धी क्रिया चेष्टा- कायव्यापार अन्योन्यक्रिया । ( अन्योन्यं परस्परतः साधुना कृतप्रतिक्रियया न विधेया इत्येवं नेतव्योन्योन्यक्रिया - शीलांगाचार्य टीका ) ।
आयारांग के द्वितीय श्रुतस्कंध के पष्ठसप्तकक अर्थात् तेरहवें अध्ययन के प्रारम्भ में परक्रियाओं का एक वर्णन है । अन्त में "एवं यत्रा अण्णमण्णकिरिया वि” ऐसा पाठ दिया है, अतः जिस प्रकार परक्रियाओं का वर्णन किया गया है उसी प्रकार अन्योन्य क्रियाओं का भी वर्णन जानना चाहिए । साधु को जिस प्रकार परक्रियाओं की अभिलाषा नहीं करनी चाहिए तथा दूसरों से नहीं करवानी चाहिए उसी प्रकार उन क्रियाओं की परस्पर में प्रतिदान की अभिलाषा नहीं करनी चाहिए और न प्रतिदान रूप में करवानी चाहिए ।
-०४ ११ अणभिक्कंत किरिया -अनभिक्रांतक्रिया
M.
तथा चौदहवें अध्ययन में भी 'अण्णमण्णकिरिया' ( अन्योन्यक्रिया ) का संक्षेप में वर्णन करके "सेसं तं चेव" ( शेष उसी प्रकार ) पाठ दिया है ।
-- देखो भिक्षु और क्रिया
---आया० श्रु २२ अ २। उ २ सू ३७| पृ० ५४
यदि कोई भवन या वासस्थान - वसति ब्राह्मण श्रमण भिक्षु भिखारी आदि के रहने के उद्देश्य से बनाया गया हो और वह भवन या वासस्थान ब्राह्मण भिखारी आदि के द्वारा भोगा हुआ नहीं हो — ऐसे स्थान में यदि साधु आकर रहे तो उसे अनभिक्रांत किया होती है । -- देखो भिक्षु और क्रिया
"Aho Shrutgyanam"
०४१२ अंतकिरिया -- अन्तक्रिया
-- ठाण० स्था ४ उ १। सू २३५ पृ० २२२
जीव की वह शेष क्रिया -- प्रचेष्टा अर्थात् वह सदानुष्ठानात्मिक चारित्रात्मिक क्रिया जिसके द्वारा जीव कर्मों का संपूर्ण अन्त — अवसान करके उसी भव में सिद्ध होता है, बुद्ध होता है, मुक्त होता है, निर्वाण प्राप्त करता है, यावत् सर्व दुःखों का अन्त करता है ।
यह अन्तक्रिया चार प्रकार से होती है, यथा - (१) दीर्घकालीन लेकिन अल्पवेदना वाली, (२) अल्पकालीन लेकिन महावेदना वाली, (३) दीर्घकालीन लेकिन घोर तप तथा महावेदना वाली और (४) अल्पकालीन तथा अल्पवेदना वाली ।
एक अपेक्षा से चतुर्दश गुणस्थानवर्ती जीव की सूक्ष्म बादर मन-वचन-काय योग के निरोध की क्रिया को अंतक्रिया कहा जा सकता है क्योंकि उक्त योगनिरोध से जीव अक्रिय
२