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क्रिया-कोश भगवान की वाणी के अनुसार क्रिया करता हुआ जीव निरपरावलम्बी सहज संवेदन रूप क्रिया की योग्यता प्राप्त करता है । यह सहज संवेदन रूप प्रवृत्ति ज्ञान और किया की अभेद भूमि है और परमानंद से स्निग्ध है । ०६ क्रिया का नय और निक्षेपों की अपेक्षा विवेचन .०६.१ नय की अपेक्षा :
__तत्र क्रिया संकल्पः नैगमेन संग्रहेण सर्व संसारजीवाः सक्रिया उक्ताः ! व्यवहारेण शरीरपर्याप्त्यनन्तरं क्रिया। ऋजुसूत्रनयेन कार्यसाधनाथ योगप्रवृत्तिमुख्यवीयपरिणामरूपा क्रिया । शब्दनयेन वीर्यपरिस्पन्दात्मिका । समभिरूढेन गुणसाधनानुरूप. सकलकर्तव्यव्यापारम्पा! एवंभूतनयेन तत्त्वैकत्ववीयतीक्ष्णतासाहाय्यगुणपरिणमनरूपा।
-- अभिधा० भाग ३ । पृ० ५५१ _ नैगम तथा संग्रहनय की अपेक्षा सर्व संसारी जीव सक्रिय हैं । व्यवहारनय की अपेक्षा शरीर पर्याप्ति के पश्चात क्रिया होती है। ऋजुसूत्रनय की अपेक्षा कार्य के साधन के लिये योगप्रवृत्ति को मुख्यता से वीर्य का जो परिणमन होता है वह क्रिया है। शब्दनय से वीर्य आत्मा का परिस्पंदन क्रिया है। समभिरूढ़नय से गुण की साधना के अनुरूप सर्व कर्तव्य का करना--किया है। एवंभूतनय से वीर्य आत्मा के तीन परिस्पंदन की सहायता से जो गुण परिणमन हो वह क्रिया है । .०६.२ निक्षेप की अपेक्षा
[ नियुक्तकार ने निक्षेपों की अपेक्षा क्रिया का विवेचन करते हुए नाम तथा स्थापना का विवेचन नहीं किया है तथा द्रव्य-भाव की अपेक्षा किया है।]
दव्वे किरिए एजणया य, पओगुवायकरणिजसमुदाणे । इरियावहसंमत्ते, सम्मामिच्छा य चेव मिच्छत्ते ।।
-सूय° श्रु २ । अ २ । सू १ ! नि गा १५६ उपयुक्त मूल पाठ में 'अभिधा' में दिये गये पाठ से भिन्नता है ।
द्रव्य की अपेक्षा जीव तथा अजीव की परिस्पंदन रूप-चलन रूप क्रिया--- द्रव्य क्रिया है। द्रव्य क्रिया दो प्रकार की होती है--प्रायोगिक, वैससिका। वह चाहे उपयोगपूर्वक हो या अनुपयोगपूर्वक हो अथवा आँख की पलक झपकने मात्र जितनी हो वे सब द्रव्यक्रिया हैं।
जिस क्रिया से कर्मबन्ध होता हो-वह भाव क्रिया है।
भावक्रिया के अनेक भेद हैं । यथा--प्रयोगक्रिया, उपाय क्रिया, करणीयक्रिया, समुदानक्रिया, ऐर्यापथिकक्रिया, सम्यक्त्वक्रिया, मिथ्यात्वक्रिया इत्यादि ।
"Aho Shrutgyanam"