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________________ ११६ क्रिया-कोश अभ्याख्यानक्रिया करता हुआ जीव उसी प्रकार कर्मप्रकृति का बंध करता है जैसा प्राणातिपात क्रिया करता हुआ जीव कर्मप्रकृति का बंध करता है। .५८ पैशुन्य पापस्थान क्रिया .५८१ परिभाषा | अर्थ(क) पैशुन्यं-पिशुनकर्म प्रच्छन्नं सदसदोषाविर्भावनम् । -ठाण स्था १ । सू ४८ । टीका (ख) पैशुन्यं-परोक्षे सतोऽसतो वा दोषस्योद्घाटनम् । -पण्ण० प २२ । सू १५८० । टीका पीठ पीछे किसी के ऊपर झूठा या सच्चा दोष लगाना या चुगली खानापैशुन्य है। .५८२ पैशुन्यक्रिया और जीवदंडक : (क) अस्थि णं भंते ! जीवाणं परिग्गहेणं किरिया कजइ ? हंता, अत्थि । कम्हि णं भंते ! जीवा णं परिग्गहेणं किरिया कजइ ? गोयमा ! सव्वदव्वेसु, एवं नेरक्याणं जाव वेमाणियाणं। एवं xxx पेसुन्नेणं xxx। सव्वेसु जीवनेरइयभेदेसु (भेदेणं) भाणियव्वं ( भाणियव्वा) निरंतरं जाव वेमाणियाणं ति । -पण्ण० प २२ । सू १५८० ! पृ० ४७६ किसी जीव या अजीव वस्तु के ऊपर द्वेषवश पीठ पीछे चुगली खाना-पैशुन्य है । पैशुन्य के भाव कषाय मोहनीय कर्म के उदय या उदीरणा से उत्पन्न होते हैं। पैशुन्य की क्रिया अजीव तथा जीव सभी द्रव्यों के विषय में जीव करता है। नारकी से लेकर वैमानिक देव तक के जीव सभी द्रव्यों के विषय में पैशुन्य की क्रिया करते है। (ख) अस्थि णं भंते ! जीवा णं पाणाइवाएणं किरिया कजइ ? हंता, अस्थि । xxx| एगिदिया जहा जीवा तहा भाणियव्वा, जहा पाणाइवाए तहा xxx कोहे जाव मिच्छादसणसल्ले । ( देखो २२४) -भग० श १ । उ ६ । प्र २१५ । पृ० ४०३ जीव पैशुन्य से क्रिया करते हैं। पैशुन्य क्रिया यदि व्याघात नहीं हो तो छओं दिशाओं को और व्याघात होने से कदाचित तीन दिशाओं को, कदाचित् चार दिशाओं को, कदाचित् पाँच दिशाओं को स्पर्श करती है। पैशुन्य-क्रिया आत्मकृत है, परकृत या उभयकृत नहीं है। यह क्रिया अनुक्रमपूर्वक की जाती है, बिना अनुक्रमपूर्वक नहीं की जाती है। "Aho Shrutgyanam"
SR No.009528
Book TitleKriya kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1969
Total Pages428
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size9 MB
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