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क्रिया - कोश
५७.२ अभ्याख्यानक्रिया और जीवदंडक
(क) अस्थि णं भंते ! जीवाणं परिग्गणं किरिया कज्जइ ? हंता, अस्थि । कम्हि णं भंते! जीवा णं परिग्गहेण किरिया कज्जइ ? गोयमा ! सव्वदव्वेसु, एवं नेरइया जाव वैमाणियाणं । एवं xxx अब्भक्खाणेणं xxx । सव्वेसु जीवनेरइयभेदेसु ( भेदेणं ) भाणियव्वं ( भाणियव्वा ) निरंतरं जाव वेमाणियाणं ति ।
-- पण्ण० प २२ / सू १५८० | पृ० ४७६
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किसी जीव या अजीव वस्तु के ऊपर द्वेषवश झूठा कलंक लगाना, झूठा दोषारोपण करना-अभ्याख्यान है । अभ्याख्यान के भाव कषाय मोहनीय कर्म के उदय या उदीरणा से उत्पन्न होते हैं । अभ्याख्यानक्रिया अजीव तथा जीव सभी द्रव्यों के प्रति जीव करते हैं ! नारकी से लेकर वैमानिक देव तक के जीव सभी द्रव्यों के प्रति अभयाख्यान से क्रिया करते हैं । (ख) अस्थि णं भंते ! जीवा णं पाणाश्वाएणं किरिया कज्जर ? हंता, अस्थि । xxx । एगिंदिया जहा जीवा तहा भाणियव्वा, जहा पाणाइवाए तहा xxx कोहे जाब मिच्छादंसण सल्ले । ( देखो २२४)
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--भग० श १ | उ ६ । प्र २१५ पृ० ४०३ जीव अभ्याख्यान से क्रिया करते हैं। अभयाख्यान- क्रिया यदि व्याघात नहीं हो तो ओं दिशाओं को और व्याघात होने से कदाचित तीन दिशाओं को, कदाचित् चार दिशाओं को, कदाचित् पाँच दिशाओं को स्पर्श करती है। अभयाख्यान किया आत्मकृत है, परकृत या उभयकृत नहीं है । यह क्रिया अनुक्रमपूर्वक की जाती है बिना अनुक्रपूर्वक नहीं की जाती है। नारकी जीव भी अभयाख्यान - किया सब द्रव्यों के विषय में करते हैं तथा यह क्रिया यावत् नियमपूर्वक छओं दिशाओं को स्पर्श करती है तथा औधिक जीव की तरह यावत्
अनुक्रमपूर्वक की जाती है ।
एकेन्द्रिय को छोड़कर यावत् वैमानिक देव तक सब दंडकों में नारकी के समान कहना चाहिए ।
एकैन्द्रियों का कथन औधिक जीवों की तरह कहना चाहिए ।
-५७ ३ अभ्याख्यानक्रिया और कर्मप्रकृति का बंध
जीवे णं भंते! पाणाइवाएणं कइ कम्मपगडीओ बंधइ ? देखी २२५ ) ( एवं ) जाव मिच्छादंसणसल्ले ।
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"Aho Shrutgyanam"
( पूरे पाठ के लिए
-- पण ० प २२ । सू १५८४ । पृ० ४७६-८०