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क्रिया - कोश
जीव कलह से क्रिया करते हैं ।
कलह-क्रिया यदि व्याघात नहीं हो तो छऔं दिशाओं को और व्याघात होने से कदाचित तीन दिशाओं को, कदाचित चार दिशाओं को, कदाचित पाँच दिशाओं को स्पर्श करती है । कलह-क्रिया आत्मकृत है, परकृत या उभयकृत नहीं है । यह क्रिया अनुकमपूर्वक की जाती है बिना अनुक्रमपूर्वक नहीं की जाती है ।
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नारकी जीव भी कलह-क्रिया सब द्रव्यों के विषय में करते हैं तथा यह क्रिया यावत नियमपूर्वक छओं दिशाओं को स्पर्श करती है तथा औधिक जीव की तरह थावत अनुक्रमपूर्व की जाती है ।
एकेन्द्रिय को छोड़कर यावत वैमानिक देव तक सब दंडकों में नारकी के समान कहना चाहिए |
एकेन्द्रियों का कथन औधिक जीवों की तरह कहना चाहिए ।
*५६३ कलहक्रिया और कर्मप्रकृति का बंध
जीवे णं भंते! पाणाइवाएणं कइ कम्मपगडीओ बंध ? (पूरे पाठ के लिए देखो क्रमांक २२५) ( एवं ) जाव मिच्छादंसणसल्ले ।
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- पण्ण० प २२ । सू १५८४ | पृ० ४७६८० कलहक्रिया करता हुआ जीष उसी प्रकार कर्मप्रकृति का बंध करता है जैसा प्राणातिपात क्रिया करता हुआ जीव कर्मप्रकृति का बंध करता है ।
• ५७ अभ्याख्यान पापस्थान क्रिया -५७१ परिभाषा / अर्थ
(क) अभ्याख्यानं– प्रकटम सदोषारोपणम् ।
- ठाण० स्था १ । सू ४८ | टीका (ख) अभ्याक्खानं - असदोषारोपणं यथा - अचौरेऽपि चौरस्त्वमपारदारिकेऽपि पारदारिकत्वमित्यादि, इदं मृषावादेऽप्यन्तर्गतं परमुत्कृष्टोऽयं दोष इति पृथगुपात्तम् । - पण ० प २२ । सू ३ । टीका
खोटे झूठे दोष का आरोपण करना - लगाना - अभ्याख्यान है । जैसे जो चोर नहीं है उसको चोर कहना, जो परस्त्री गमन नहीं करता है उसको परस्त्री- लम्पट कहना । अभयाख्यान का मृषावाद में समावेश हो जाता है लेकिन यह महान् दोष है अतः इसको अलग ग्रहण किया गया है ।
" Aho Shrutgyanam"