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क्रिया-कोश एकेन्द्रिय को छोड़कर यावत् वैमानिक देव तक सब दंडकों में नारकी के समान कहना चाहिए।
एकेन्द्रियों का कथन औधिक जीवों की तरह कहना चाहिए ।
.५५३ क्रोधप्रत्ययिक क्रिया और कर्मप्रकृति का बन्ध :
जीवे णं भंते ! पाणाइवाएणं कइ कम्मपगडीओ बन्धइ ?......( पूरे पाठ के लिए देखो क्रमांक २२५) एवं (जाव) मिच्छादसणसल्ले ।
---पण्ण० प २२ । सू १५८४ । पृ० ४७६-८० क्रोधप्रत्ययिक क्रिया करता हुआ जीव उसी प्रकार कर्मप्रकृति का बंध करता है जैसा प्राणातिपात क्रिया करता हुआ जीव कर्मप्रकृति का बन्ध करता है।
[ देखो क्रमांक २२५]
.५६ कलह पापस्थान क्रिया :.५६.१ परिभाषा / अर्थ(क) तत्र कलहो-राटी।
–ठाणा० स्था १ । सू ४८ । टीका (ख) कलहो-राटिः।।
–पण्ण० प २२ । सू १५८० । टीका कलह अर्थात् लड़ाई-झगड़ा-विग्रह-राड़-कजिया।
'.५६२ कलहक्रिया और जीवदण्डक
(क) अस्थि णं भंते ! जीवा णं परिम्गहेणं किरिया कज्जइ ? हंता, अस्थि । कम्हि णं भंते! जीवा णं परिगहेणं किरिया कज्जइ ? गोयमा ! सव्वदव्वेसु, एवं नेरइयाणं जाव वेमाणियाणं । एवं xxx कलहेणं xxx । सव्वेसु जीवनेरड्यभेदेसु (भेदेणं ) भाणियव्वं ( भाणियव्वा) निरंतरं जाव वेमाणियाणं ति ।
-पण्ण० प २२ । सू१५७६ । पृ० ४७६ किसी जीव या अजीव वस्तु के साथ राग-द्वेष वश लड़ाई-झगड़ा-विग्रह-राड-कजिया आदि करना कलह है। कलह करने के भाव कषाय मोहनीय कर्म के उदय या उदारणा से उत्पन्न होते हैं। कलह की क्रिया अजीव-जीव सभी द्रव्यों के साथ जीव करता है। नारकी से लेकर वैमानिक देव तक के जीव सभी द्रव्यों के साथ कलह की क्रिया करते हैं।
(ख) अस्थि णं भंते! जीवा णं पाणाइवाएणं किरिया कज्जइ ? हंता, अस्थि xxx एगिदिया जहा जीवा तहा भाणियव्वा, जहा पाणाइवाए तहा xxx कोहे जाव मिच्छादसणसल्ले । ( देखो क्रमांक २२४)
-भग० श १। उ ६ । प्र २१५ । पृ० ४०३
"Aho Shrutgyanam"