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क्रिया - कोश
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नारकी जीव भी पैशुन्यक्रिया सब द्रव्यों के विषय में करते हैं तथा यह क्रिया यावत् नियमपूर्वक छओं दिशाओं को स्पर्श करती है तथा औधिक जीव की तरह यावत् अनुक्रमपूर्वक की जाती है ।
एकेन्द्रिय को छोड़कर यावत वैमानिक देव तक सत्र दंडको में नारकी के समान कहना चाहिए ।
एकेन्द्रियों का कथन औधिक जीवों की तरह कहना चाहिए ।
५८३ पैशुन्यक्रिया और कर्मप्रकृति का बंध :
जीवे णं भंते! पाणाश्वाएणं कइ कम्मपगडीओ बंधइ' देखो २२५ ) ( एवं ) जाव मिच्छादंसणसल्ले ।
- पण्ण० प २२ । सू. १५८४ / पृ ४७६-८०
पैशुन्यक्रिया करता हुआ जीव उसी प्रकार कर्मप्रकृति का बंध करता है जैसा प्राणातिपात क्रिया करता हुआ जीव कर्मप्रकृति का बंध करता है ।
-५६ परपरिवाद पापस्थान क्रिया
*५६१ परिभाषा /अर्थ
(क) परेषां परिवादः परपरिवादो विकत्थनमित्यर्थः ।
(ख) परपरिवादः प्रभूतजनसमक्षं परदोषविकत्थनम् ।
( पूरे पाठ के लिए
- ठाण० स्था १ । सू ४८ । टीका
- पण० प २२ । सू ३ | टीका दुनिया के सामने या जनसमूह के समक्ष दूसरे पर दोष लगाना - निन्दा करना, बुराई करना -- परपरिवाद है ।
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५६२ परपरिवादक्रिया और जीवदंडक
(क) अत्थि णं भंते ! जीवा णं परिग्गणं किरिया कज्जइ ? हंता, अत्थि । कम्हि णं भंते ! जीवा णं परिग्गद्देणं किरिया कज्जइ ? गोयमा ! सव्वदव्वेसु, एवं नेरइयाणं जाव वैमाणियाणं एवं xxx परपरिवारणं xxx । सव्वेसु जीवनेरइयभेदेसु (भेदेणं) भाणियव्वं ( भाणियव्वा ) निरंतरं जाव वैमाणियाणं ति ।
"Aho Shrutgyanam"
- पण्ण० प २२ । सू १५८० पृ० ४७६ किसी जीव या अजीव वस्तु की द्वेषवश जन-समूह के सामने या लोगों या जन-जन में निन्दा करना, बुराई करना - परपरिवाद है । परपरिवाद के भाव कषाय मोहनीय कर्म