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क्रिया - कोश
पातस्य च भावे पूर्वक्रियाणामवश्यं भावस्तासामभावे तयोरभावात्, ततोऽमुमेवार्थं परिभाव्य कायिकी शेषाभिश्चतसृभिः क्रियाभिः सह अधिकरणिकी तिसृभिः क्रियाभिः सह प्राद्वेषिकी द्वाभ्यां सूत्रतः सम्यक् चिन्तनीया, पारितापनिकी प्राणातिपातक्रिययोस्तु सूत्रं साक्षादाह
' जस्स णं भंते! जीवस्स पारियावणिया किरिया कज्जर' इत्यादि, पारितापनिक्याः सद्भावे प्राणातिपातक्रिया स्याद् भवति स्यान्न भवति, यदा बाणाद्यभिघातेन जीवितात् ध्याव्यते तदा भवति शेषकालं न भवतीत्यर्थः, यस्य पुनः प्राणातिपातक्रिया तस्य नियमात् पारितापनिकी, परितापनमन्तरेण प्राणव्यपरोपणासंभवात् ।
यहाँ कायिकी क्रिया से औदारिकादि शरीर के आश्रित प्राणातिपात — हिंसा करने में समर्थ ऐसी विशिष्ट क्रिया को ग्रहण करना लेकिन कार्मण शरीर के आश्रित क्रिया को ग्रहण नहीं करना । प्रथम तीन क्रियाओं का परस्पर में नियमित संबंध है इसका कारण यह है कि 'शरीर अधिकरण भी है।' अतः काया के अधिकरण होने से कायिकी क्रिया जहाँ होती है वहाँ आधिकरणिकी किया अवश्य होती है तथा जहाँ अधिकरणिकी क्रिया होती है वहाँ कायिकी क्रिया अवश्य होती है और वह विशिष्ट कायिकी क्रिया प्रद्वेष के बिना नहीं होती है, इसलिए प्राद्वेषिकी क्रिया के साथ भी परस्पर में नियमित सम्बन्ध है । प्रद्वेष के लक्षण काया में स्पष्ट प्रस्फुटित होते हैं क्योंकि मुख की वक्रता- रुक्षता आदि प्रद्वेष के निश्चित चिह्न प्रत्यक्ष जाने जाते हैं । अतः कायिकी और आधिकरणिकी क्रिया के साथ प्राद्वेषिकी क्रिया का अविनाभाव सम्बन्ध है ।
परिताप और प्राणातिपात का प्रथम की तीन क्रियाओंके सद्भाव में होने का निश्चित नियम नहीं है । यथा -- घातक शिकारी घात के पात्र मृगादि पशु को धनुष के द्वारा निक्षिप्त बाण से बींधता है उससे उसका परिताप और मरण होता है अन्यथा नहीं होता है इसलिए अनिश्चयता है । परिताप और प्राणातिपात के सद्भाव में कायिकी - अधिकरणिकी प्राद्वेषिकी क्रिया अवश्य होती है क्योंकि इन तीन क्रियाओं के अभाव में परिताप और प्राणातिपात नहीं होता है ।
पारितापनिकी क्रिया के सद्भाव में प्राणातिपातिकी क्रिया कदाचित् होती है, कदाचित नहीं होती है । वाणादि के अभिघात से जीव काया से जुदा होता है— मृत्यु को प्राप्त होता है तब प्राणातिपातिकी क्रिया होती है—अवशेष काल में नहीं होती है । जिसको प्राणातिपातिकी क्रिया होती है उसे पारितापनिकी क्रिया अवश्य होती है क्योंकि परिताप के बिना प्राणों का वियोग नहीं होता है ।
" Aho Shrutgyanam"