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क्रिया - कोश
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युक्त,
ईर्या, भाषा, एषणा, आदानभंड निक्षेपण, उच्चारप्रस्रवण आदि परिष्ठापन समिति से मन-वचन-काया से समित, मन-वचन-काया- इन्द्रिय से गुप्त, तथा गुप्त ब्रह्मचारी अर्थात विशुद्ध ब्रह्मचर्य का पालन करने वाला, उपयोग सहित चलने वाला, खड़ा होने वाला, बैठने वाला, भोजन करने वाला, बोलने वाला तथा उपयोग सहित वस्त्र, पात्र, कम्बल, पादपोंछन -- रजीहरण आदि को ग्रहण करने वाला या रखने वाला यावत् चक्षु की पलक को भी उपयोग से हिलाने वाला जो आत्मार्थी संवृत अणगार - साधु है उसके योग मात्र सेविविध मात्रा वाली सूक्ष्म ऐर्यापथिक क्रिया लगती है ।
यह क्रिया टीकाकार के अनुसार उपशान्तमोह-- क्षोणमोह – सयोगी केवली के लगती है । सयोगी जीव क्षणमात्र के लिये भी अग्नि में तपते हुए जल की तरह निश्चल नहीं रह सकते हैं अतः यह क्रिया सयोगी केवली के भी लगती है । जाने, आने, चलने आदि स्थूल क्रिया यावत् आँख की पलक हिलने मात्र की सूक्ष्मातिसूक्ष्मयौगिक क्रिया से ऐर्यापथिक क्रिया लगती है ।
यह क्रिया प्रथम समय में बद्ध और स्पृष्ट होती है, द्वितीय समय में वेदित और अनुभूत होती है, तृतीय समय में निजीर्ण होती हैं, वह बद्धस्पृष्ट- उदीरित-वेदित-निर्ज्जरित किया उसी तीसरे समय में अकर्म हो जाती है ।
इस प्रकार सदा जाग्रत संयमी -मुनियों के भी ऐर्यापथिक क्रियास्थान से लगने वाला ( सावद्य ) का वर्णन किया गया है। यह तेरहवाँ ऐर्यापथिक क्रियास्थान है ।
टीकाकार के अनुसार ऐर्यापथिक क्रिया से सातावेदनीय स्थिति से दो समय की स्थिति वाला, अनुभाव से शुभानुभाव वाला तथा अनुत्तरोपपातिक देवों के सुखातिशय के समान तथा प्रदेश से बहुप्रदेश से अस्थिर बन्ध तथा बहुव्यय वाले कर्म का बन्ध होता है । ऐर्यापथिक क्रिया से मात्र योग निमित्त से कर्म का बंध होता है तथा कषाय के अभाव में साम्परायिक स्थिति वाला बंध नहीं होता है किन्तु योग के सद्भाव से बद्धस्पृष्ट होकर संश्लेष को प्राप्त होता है । ऐर्यापथिक क्रिया जीव के ज० अन्तर्मुहूर्त उ० देशोनपूर्व कोटि कालपर्यन्त लगती रहती है ।
'३८ साम्परायिकी क्रिया
३८१ परिभाषा / अर्थ
(क) सम्परायाः – कषायास्तेषु भवा साम्परायिकी, सा ह्यजीवस्य पुद्गलराशेः कर्मतया परिणतिरूपा जीवव्यापारस्याविवक्षणादजीव क्रियते सा च सूक्ष्मसम्परायातानां गुणास्थानकवतां भवतीति । ठाण० स्था २ । उ १ | सू ६० । टीका
" Aho Shrutgyanam"