________________
१२०
क्रिया-कोश दिशाओं को, कदाचित् पाँच दिशाओं को स्पर्श करती है। रति-अरति-क्रिया आत्मकृत है, परकृत या उभयकृत नहीं है । यह क्रिया अनुकमपूर्वक की जाती है बिना अनुक्रमपूर्वक नहीं की जाती है।
नारकी जीव भी रति-अरतिक्रिया सब द्रव्यों के विषय में करते हैं तथा यह क्रिया यावत् नियमपूर्वक छओं दिशाओं को स्पर्श करती है तथा औधिक जीव की तरह यावत् अनुक्रमपूर्वक की जाती है ।
एकेन्द्रिय को छोड़कर यावत् वैमानिक देव तक सब दंडकों में नारकी के समान कहना चाहिए।
एकेन्द्रियों का कथन औघिक जीवों की तरह कहना चाहिए।
६०.३ रति-अरतिक्रिया और कर्मप्रकृति का बंध :--
जीवे गं भंते ! पाणाइवाएणं कइ कम्मपगडीओ बंधइ ?............( पूरे पाठ के लिए देखो २२.५) ( एवं) जाव मिच्छादसणसल्ले।
—पण्ण० प २२ । सू१५८४ । पृ० ४७६-८० - रति-अरतिक्रिया करता हुआ जीव उसी प्रकार कर्मप्रकृति का बंध करता है जैसा प्राणातिपात क्रिया करता हुआ जीव कर्मप्रकृति का बंध करता है ।
'६१ मायामृषा पापस्थान क्रिया ६१.१ परिभाषा | अर्थ. (क) 'मायामोसं' त्ति माया च --निकृतिमृषा च . मृषावादो मायया वा सह मृषा मायामृषा प्राकृतत्वान्मायामोसं दोषद्वययोगः।
- ठाण° स्था १ सू ४८ । टीका (ख) 'मायामोसेण' मिति माया च मृषा च समाहारो द्वन्द्वः, द्वन्द्वकत्वे नपुंसकत्वमिति 'क्लीबे' इति ह्रस्वत्वं तेन इह समुदायो विवक्षितो, महाकर्मबन्धहेतुश्चेति मृषावादमायाभ्यां पृथगुपात्तम् ।
-पष्ण ० प २२ ! सू १५८० । टीका किसी द्रव्य के विषय में माया-कपट सहित असत्य बोलना मायामृषा है। इसमें माया तथा मृषा दोनों का योग है । महाकर्म के बंध का हेतु होने से इसका माया तथा मृषा से अलग विवेचन किया गया है।
६१.२ मायामृषाक्रिया और जीवदंडक :---
(क) अस्थि णं भंते ! जीवा णं परिग्गहेणं किरिया कन्जइ ? हंता, अस्थि । कम्हि
"Aho Shrutgyanam"