________________
क्रिया-कोश
१२१ णं भंते ! जीवा णं परिग्गहेणं किरिया कजइ ? गोयमा ! सव्वदव्वेसु, एवं नेरझ्याणं जाव वेमाणियाणं एवं xxx मायामोसेणं xxx । सव्वेसु जीवनेरइयभेदेसु (भेदेणं) भाणियव्वं ( भाणियव्वा ) निरंतरं जाव वेमाणियाणं ति।।
-पण्ण० प २२ । सू १५८० । पृ० ४७६ - किसी द्रव्य के विषय में रागद्वेषवश माया-कपट सहित असत्य बोलना-मायामृषा है। मायामृषा के भाव कषाय मोहनीय कर्म के उदय या उदीरणा से उत्पन्न होते है । मायामृषाक्रिया अजीव-जीव सभी द्रव्यों के साथ जीव करते हैं। नारकी से लेकर वैमानिक देव तक के जोव सभी द्रव्यों के विषय में मायामृषा से क्रिया करते हैं ।
(ख) अस्थि णं भंते ! जीवा णं पाणाइवाएणं किरिया कजइ ? हंता, अस्थि । xxx! एगिदिया जहा जीवा तहा भाणियव्वा, जहा पाणाइवाए तहा xxx कोहे जाव मिच्छादसणसल्ले । ( देखो '२२.४)
-भग श १ । उ ६ । प्र २१५ । पृ० ४०३ जीव माया-मृघा से क्रिया करते हैं । माया-मृषाक्रिया यदि व्याघात नहीं हो तो छओं दिशाओं को और व्याघात होने से कदाचित् तीन दिशाओं को, कदाचित् चार दिशाओं को, कदाचित पाँच दिशओं को स्पर्श करती है । माया-मृषा किया आत्मकृत है, परकृत या उभयकृत नहीं है । यह क्रिया अनुक्रमपूर्वक को जाती है, बिना अनुक्रमपूर्वक नहीं की जाती है।
नारको जीव भी माया-मृषाकिया सब द्रव्यों के विषय में करते हैं तथा यह किया यावत् नियमपूर्वक छों दिशाओं को स्पर्श करती है तथा औधिक जीव की तरह यावत् अनुक्रमयूर्वक की जाती है ।
एकेन्द्रिय को छोड़कर यावत् वैमानिक देव तक सब दंडकों में नारकी के समान कहना चाहिए।
एकेन्द्रियों का कथन औधिक जीवों की तरह कहना चाहिए ।
'६१.३ माया-मृषावादक्रिया और कर्मप्रकृति का बंध :
जीवे णं भंते! पाणाइवाएणं कइ कम्मपगडीओ बंध ? ....." ( पूरे पाठ के लिए देखो ‘२२५) ( एवं ) जाव मिच्छादसणसल्ले।
-पण्ण० प २२ । सू १५८४ । पृ० ४७६-८० माया-मृषाक्रिया करता हुआ जीव उसो प्रकार कर्मप्रकृति का बंध करता है जैसा प्राणातिपात क्रिया करता हुआ जीव कर्मप्रकृति का बंध करता है ।
"Aho Shrutgyanam"