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क्रिया - कोश
विषयान्तरापेक्षया अरति व्यपदिशन्त्येवमरतिमेव
रतिमित्यौपचारिकमेकत्वमनयो
रस्तीति ।
- ठाण० स्था १ । सू ४८ । टीका (ख) यदुदयाद् बाह्याभ्यन्तरेषु वस्तुषु प्रमोदमाधत्ते तत् रतिमोहनीयं, यदुदयवशात् पुनर्बाह्याभ्यन्तरेषु वस्तुषु अप्रीतिं करोति तदरतिमोहनीयम् ।
- पण्ण० प २३ । उ२ । सू १३६१ | टीका किसी द्रव्य के विषय में विकार अप्रोति उद्वेग आना अरति है तथा किसी द्रव्य के विषय में आनन्द-प्रमोद सुख अनुभूत होना रति है । रति-अरति का विवेचन एक साथ है क्योंकि जिस द्रव्य के विषय में कभी अरति होती है उसी द्रव्य के विषय में कालान्तरविषयान्तर से रति भी होती । यद्यपि नोकषायमोहनीय के भेदों में अरति रति की अलगअलग गणना की गई है । यथा---
नोकसायवेयणिज्जे णं भंते ! कम्मे कहविहे पन्नत्ते ? गोथमा ! नवविहे पन्नत्ते, तंजा - इत्थीवेए (वैयणिज्जे) पुरिसवेर (वेयणिज्जे) नपुंसगवेए (वेयणिज्जे), हासे, रई, अरई, भए, सोगे, दुर्गुछा ।
- पण्ण० प २३ । २ । सू १६६१ / ५० ४६०
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६०२ रति- अरतिक्रिया और जीवदंडक :
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(क) ( अस्थि णं भंते ! जीवा णं परिग्गहेणं किरिया कज्जइ ? हंता, अत्थि कम्हि णं भंते! जीवा णं परिग्गणं किरिया कव्जइ ? गोयमा ! सव्वदव्वेसु, एवं नेरयाणं जाव वैमाणियाणं ) एवं xxx अरइरईए × × × । सव्वेसु जीवनेरश्यभेदेसु (भेदेणं) भाणियव्वं ( भाणियव्वा ) निरंतरं जाव वैमाणियाणं ति ।
-- पण्ण० प २२ । सू १५६० पृ० ४७६ बाह्य आभ्यन्तर वस्तु में प्रमोद आनंद-सुख की अनुभूति होना रति है तथा बाह्यआभ्यंतर वस्तु में अप्रीति उद्वेग आना अरति है । रति - अरति के भाव नोकषायमोहनीय के उदय या उदीरणा से उत्पन्न होते हैं । रति अरति की क्रिया जीव तथा अजीव सभी द्रव्यों में जीव करता है । नारकी से लेकर वैमानिक देव तक के जीव सभी द्रव्यों में रति-अरति की क्रिया कहते हैं ।
(ख) अस्थि णं भंते ! जीवा णं पाणावाएणं किरिया कज्जर ? हंता, अत्थि | xxx । एगिंदिया जहा जीवा तहा भाणियव्वा, जहा पाणाइवाए तहा xxx कोहे जाव मिच्छादंसण सल्ले । (देखो क्रमांक २२४)।
-भग० श १ । उ ६ । प्र० २१५ । पृ० ४०३ जीव रति- अरति से क्रिया करते हैं । रति-अरति क्रिया यदि व्याघात नहीं हो तो छओं दिशाओं को और व्याघात होने से कदाचित तीन दिशाओं को, कदाचित चार
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