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________________ क्रिया-कोश ३१३ पुत्रवधू, धाय, दास-दासी, नौकर-नौकरानी ऐसे होते हैं जो साधु के आचार-गोचर को भलीभाँति नहीं समझते है तथा श्रद्धा करके, प्रतीति करके, रुचि करके श्रमण, ब्राह्मण, अतिथि, कृपण, भिखारी आदि के अवकाश के उद्देश्य से यत्र-तत्र विभिन्न प्रकार के भवनादि बनाते हैं, यथा-आवेशन-लोहारशाला, आयतन-धर्मशाला, देवस्थान, सभागृह, प्याऊ, पण्यगृह-दूकान-हाट, पण्यशाला-गोदामादि, यानगृह-रथशाला, यानशाला-~यान बनाने के घर, मकान पोतने के लिए खड़ी, चूना आदि बनाने का घर, दर्भ-घास-तृणादि के गृह, बढ़ईशाला, वल्क-छाल-चर्मशाला, वन-वनस्पतिगृह, इंगालकोयला बनाने का स्थान, काठ का गोला, श्मशानगृह, शान्तिगृह, पर्वतगृह, गुफागृह, पाषाणमंडप, भवन आदि का निर्माण कराते हैं तथा उन स्थानों में श्रमण, ब्राह्मण आदि उतरते हों, ठहरे हों और कोई साधु यदि वहाँ जाकर रहे तो उसको अभिक्रान्त क्रियादोष लगता है। .४ अनभिक्रान्त क्रिया :-- इह खलु पाईणं वा, पडीणं वा, दाहीणं वा, उदीणं वा, संतेगश्या सट्टा भवंति, तंजहा-गाहावई वा जाव कम्मकरीओ वा। तेसिं च णं आयार-गोयरे णो सुणिसंते भवइ, तं सद्दहमाणेहिं, तं पत्तियमाणेहि, तं रोयमाणेहिं बहवे समणमाहण- अतिहि-किवण-वणीमए समुहिस्स तत्थ तत्थ अगारीहिं अगाराई चेतिआई भवंति, तंजहा--आएसणाणि वा जाव भवणगिहाणि वा जे भयंतारो तहल्पगाराई आएसणाणि वा जाव भवणगिहाणि वा तेहिं अणोवयमाणेहिं ओवयंति, अयमाउसो! अणभिक्कत-किरिया वि भवइ । - आया० श्रु २। अ २ । उ २ । प्र ३७ । पृ० ५४ इस लोक में कई श्रद्धालु गृहस्थ-गृहिणो आदि ऐसे होते हैं--जो साधु के आचारगोचर को मली-भाँति नहीं समझते हैं तथा श्रद्धा करके, प्रतीति करके, रुचि करके श्रमणब्राह्मण आदि के लिए भवन-धर्मशाला आदि का निर्माण कराते हैं और उन स्थानों में यदि श्रमण-ब्राह्मण आदि नहीं रहते हों, नहीं रहे हों, फिर भी कोई साधु उनमें आकर रहे तो उसको अनभिक्रान्त क्रिया--दोष लगता है। .५ वयं क्रिया : इह खलु पाईणं वा, पड़ीणं वा, दाहीणं वा, उदीणं वा, संतेगइया सड्डा भवंति, तंजहा-गाहावई वा जाव कम्मकरीओ वा। तेसिं च णं एवं पुत्तपुव्वं (वृत्तपुव्वं ) भवइ "Aho Shrutgyanam"
SR No.009528
Book TitleKriya kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1969
Total Pages428
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size9 MB
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