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________________ १६४ क्रिया-कोश भव, तहपगारे पुरिसजाए निरुद्वेणं परियाएणं सिज्झर जाव अंत करे, जहा- से गयसूमाले अणगारे, दोच्चा अंतकिरिया । (३) अहावरा तथा अंतकिरिया, महाकम्मे पचायाए यावि भवइ, सेणं मुंडे भवित्ता - अगाराओ अणगारियं पव्व३ए, जहा दोच्चा, नवरं दीहेणं परियाएणं सिज्झइ जाव सव्वदुक्खाणमंत करे जहा से सणकुमारे राया चाउरंतच कवट्टी तच्चा अंतकिरिया । (४) अहावरा चउत्था अंतकिरिया - अप्पकम्मपश्चायाए यावि भवइ, से णं मुंडे भवित्ता जाव पव्वइए, संजमबहुले, जाव तस्स णं णो तहप्पगारे तवे भवर, णो तहपगारा वेयणा भवर, तहपगारे पुरिसजाए निरुद्धणं परियाएणं सिज्झर जाव सव्वदुक्खाणमंत करे, जहा - सा मरुदेवा भगवई, चउत्था अंतकिरिया । - ठाण० स्था ४ | उ १ । सू २३५ । पृ० २२२ अन्तक्रिया वास्तव में एक ही है, इससे जीव सर्व दुःखों का अंत करके सिद्धगति को प्राप्त करता है लेकिन साधन सामग्री के भेद से चार प्रकार की कही गई है यथा-(१) तथाविश्व तप नहीं होता है, तथाविध परीषह आदि से उपजती वेदना नहीं होती है परन्तु दीर्घकाल की दीक्षापर्याय द्वारा सिद्धि होती है ; (२) तथाविध तप और घोर वेदना होती है। लेकिन अल्पकाल की दीक्षापर्याय द्वारा सिद्धि होती है; (३) तथाविध उत्कृष्ट तप और वेदना होती है तथा दीर्घकाल की दीक्षापर्याय द्वारा सिद्धि होती है तथा ( ४ ) तथाविध तप और वेदना नहीं होती है और अल्पकाल की दीक्षापर्याय द्वारा सिद्धि होती है । ( १ ) कोई जीव पूर्वभव से अल्प कर्म वाला होकर मनुष्यभव में आता है और वहाँ दीक्षा ग्रहण करके, गृहस्थ जीवन को त्यागकर अणगार - साधु हो जाता है । वह संयम और संबर में बहुलता से प्रयत्नवंत है, अधिकाधिक समाधिवंत होता है, राग-स्नेहरहित होता है, संसार सागर को पार करने का इच्छुक होता है, उपधान - श्रुत में सुस्थिर होता है । दुःख के कारण कर्मों का क्षय करता है, तपस्वी होता है । उस जीव के उस प्रकार यथाभगवान् महावीर के समान तप भी नहीं होता है, परीषह - उपसर्गादि की वेदना भी नहीं होती है लेकिन उस प्रकार की पुरुषार्थ वाली दीर्घकाल की दीक्षा पर्याय होती है तथा उससे वह जीव सिद्ध होता है, बुद्ध होता है, मुक्त होता है, निर्वाण को प्राप्त होता है, सर्व दुःखों का अंत करता है ; यथा-भरत चक्रवर्ती -- यह प्रथम अंतक्रिया है । (२) कोई जीव पूर्वभव से महाकर्म वाला होकर मनुष्यभव में आता है और वहाँ दीक्षा ग्रहण करके, गृहस्थ जीवन को त्याग कर अणगार-साधु हो जाता है । वह संयम और संवर में बहुलता से प्रयत्नवंत है यावत् उपधानश्रुत में सुस्थिर होता है । दुःख के "Aho Shrutgyanam"
SR No.009528
Book TitleKriya kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1969
Total Pages428
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size9 MB
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