________________
हो सकते। अतएव धर्मों के वह रूप सही है ? आत्मा के प्रकाश को ?
तत्वदर्शन के समक्ष यह ज्वलन्त प्रश्न है कि यह रूप सही है या किस रूप को सत्य माना जाये ? अन्धकार को सच्चा मानें या
विरूपता का मूल -- 'कर्म'
आत्माओं को यह विरूपता स्वयं आत्माओं की अपनी नहीं है, स्वरूपगत नहीं है । जल में उष्णता जिस प्रकार बाहर के तेजस पदार्थों के संसर्ग से उत्पन्न होती है, उसी प्रकार आत्माओं में भी यह काम, क्रोध, भय, लोभ, सुख-दुःख आदि की विरूपता बाहर से आती है, अन्दर से नहीं । अन्दर में तो हर आत्मा अनन्त चैतन्य का प्रकाश लिए हुए है, वहाँ अन्धकार को एक क्षण के लिए भी स्थान नहीं है; जैन दर्शन की भाषा में द्रव्य-दृष्टि से अर्थात् अपने मूल स्वरूप से सभी आत्मा शुद्ध है, अशुद्ध कोई है ही नहीं । अशुद्धता पर्यायदृष्टि से है, द्रव्य-दृष्टि से नहीं । अतः सिद्धान्त निश्चित है कि हर आत्मा स्वभाव से शुद्ध है, एक स्वरूप है । जो अशुद्धता है, विरूपता है, भेद है, विभिन्नता है, वह सव विभाव से है, विभाव- परिणति से है ।
यह नहीं कि
यह विभाव-परिणति आत्माओं में यों ही आकस्मिक नहीं होती है । आत्माओं में जो अशुद्धता है, विरूपता है, वह अहेतुक है और उसका कोई कारण नहीं है । यदि अशुद्धता को अहेतुक माना जाय, तो फिर वह कभी दूर ही नहीं हो सकेगी ! जो अहेतुक है, वह कैसे दूर हो सकती है ? और, जब वह दूर नहीं हो सकती, तो फिर धर्म-साधना का क्या अर्थ रह जाता है ? धर्म-साधना तो आत्मा में सोए हुए परमात्मतत्त्व को जागृत करने के लिये है, आत्मा के अनन्त प्रकाश को आच्छादित करने वाले आवरणों से मुक्त होने के लिये है । यदि यह सब कुछ नहीं है तो फिर साधना अहेतुकता के अन्धकार में भटकती रह जाती है, सर्वथा मूल्यहीन हो जाती है । अतएव भारतीय तत्त्वचिन्तन ने आत्माओं की शुद्धता को सहेतुक माना है, अहेतुक नहीं ।
यह हेतु क्या है और उसका क्या स्वरूप है ? इस पर काफी चिन्तन हुआ है। भार तीय दर्शन की खोज का यह इतना महान प्रमुख विषय रहा है कि इस पर लक्षाधिक
गाथाएँ लिखी गई हैं । भारतीय दर्शनों इसे 'कर्म' कहा है । 'कर्म' शब्द एक ऐसा
शब्द है, जो प्रायः सभी आत्मवादी दर्शनों को मान्य है । परिभाषा में अन्तर हो सकता है, परन्तु आत्मा की विभिन्न सांसारिक परिणतियों के लिये सभी दर्शनों ने कर्म को ही निमित्त माना है ।
यह कर्म अपने आप होता है, आत्मा से स्वयं आकर बँध जाता है ? अथवा ईश्वर या अन्य किसी शक्ति द्वारा प्रेरित होकर आत्माओं को दूषित कर देता है ? अथवा आत्मा का अपना किया हुआ होता है ? कर्म अपनी ही भूल है, जो अपने को तंग करती है ? उक्त
[ 20 ]
"Aho Shrutgyanam"