SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 23
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भूमिका विश्व के प्रायः सभी नये-पुराने धर्मों का तत्वदर्शन आत्मा का तत्त्वदर्शन है। धार्मिक परम्पराओं की चिन्तनधारा अनन्तकाल से आत्मा को केन्द्र करके ही प्रवाहित होती आई है और प्रवाहित होती रहेगी। यदि आत्मचिन्तन को कुछ क्षणों के लिये अलग कर दिया जाये, तो फिर धर्मों के पास शून्य के सिवा और कुछ शेष रहेगा ही क्या ? यह पाप और पुण्य, यह धर्म और अधर्म, यह नरक और स्वर्ग, यह बन्ध और मोक्ष, यह उत्थान और पतन, यह सुख और दुःख क्या है ? आत्मा के अनन्त चैतन्य रूप का हो तो एक विस्तार है। परिवार का माधुर्य, समाज का दायित्व, राष्ट्रों की गौरव-गरिमा भी मूल में आत्मतत्त्व पर ही केन्द्रित होती है । इसलिये विश्व के प्रबुद्ध मनीषियों ने आत्मा के सम्बन्ध में विराट साहित्य का सृजन किया है। भारत के तत्त्वज्ञों का यह अत्यन्त प्रिय एवं प्रमुख विषय रहा है । भारत के तत्त्व-चिन्तकों में कितना ही क्यों न मतभेद रहा हो, पर आत्मतत्त्व को स्वीकृति के सम्बन्ध में तो प्रायः सभी का स्वर एक है । वैदिक परम्परा का उदघोष है.---'आत्मानं विद्धि'-अपने को जानो, अपने को पहचानो। श्रमण संस्कृति का तो यह चिरन्तन सन्देश है कि 'अप्पाणमेव समभिजाणाहि'—और कुछ जानने से पहले अपने को जानो, अपने को परखो। जिसने अपने को नहीं जाना, उसने कुछ नहीं जाना। जिसने अपने को जान लिया, उसने सब कुछ जान लिया-'आत्मनि विज्ञाने सर्व विज्ञातं भवति ।” आत्माओं में यह विरूपता क्यों ? भारतीय धर्मों और दर्शनों ने जब आत्मतत्त्व का परीक्षण किया, विश्लेषण किया, तो उन्होंने देखा कि सब आत्मा एक-सी नहीं है, एक स्वरूप नहीं है । कोई क्रूर है तो कोई दयालु है ; कोई अभिमानी है तो कोई विनम्र है ; कोई सरल है तो कोई कुटिल है ; कोई लोभी-लालची है तो कोई सन्तोषी-उदार है ; कोई रागी-द्वेषी है तो कोई वीतरागी है ; कोई संयमी है तो कोई असंयमी है। प्रश्न है, यह विभिन्नता क्यों ? आत्मा जब आत्मा है तो उसका रूप एक ही होना चाहिए। यह विरूपता क्यों, विभिन्नता क्यों, विविधता क्यों ? ऐक तत्त्व में दो परस्पर विरोधी रूप नहीं हो सकते । यदि है तो उनमें कोई एक ही रूप मौलिक एवं वास्तविक हो सकता है । दोनों तो वास्तविक नहीं हो सकते, मौलिक नहीं १-सव्वे सुद्धा हु सुद्धणया-द्रव्यसंग्रह । [ 19 ] "Aho Shrutgyanam"
SR No.009528
Book TitleKriya kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1969
Total Pages428
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy