________________
पूर्वक प्रवृत्ति करने से न कर्मबन्ध होता है, न उसके फलभोग के लिये पुनर्जन्म । जब कर्म ही नहीं तो उसका फल कैसा ? मूलं नास्ति कुतः शाखा । जब कोई साधक वीतराग हो जाता है, अर्हन्त स्थिति प्राप्त कर लेता है तो वह शताधिक वर्षों जीवित रह कर गमनागमनादि तथा धर्मदेशना आदि की उचित प्रवृत्ति करता है, निष्काम भाव से पूर्ववद्ध सुख-दुःख आदि के कर्मफलों को भोगता रहता है, किन्तु नवीन कर्मों से बद्ध नहीं होता। इसी दार्शनिक चिन्तन को लक्ष्य में रखकर अर्हन्त तीर्थकरों के लिये 'जिणाणं जावयाणं, तिण्णाणं तारयाणं, बुद्धाणं बोहयाणं, मुत्ताणं मोयगाणं' आदि स्व-पर कल्याणकारिता के द्योतक महत्त्वपूर्ण विशेषणों का प्रयोग किया गया है। यह जीवन जीने की प्रक्रिया जल में कमल के रहने की प्रक्रिया है, जो भारतीय जीवन पद्धति का एक आदर्श सूत्र है ।।
कमल जल में जन्म लेता है, जल में पोषित होता है, बढ़ता है, खिलता है, महकता है परन्तु अपने पत्तों को जल से आर्द्र रेखांकित नहीं होने देता है। जल में रहकर भी जल से निर्लिप्त रहता है। साधक भी संसार में जन्म लेता है और अन्त तक संसार में ही रहता है, जीवन के लिये आवश्यक क्रियाएँ भी करता है, परन्तु वह उस अद्भुत निष्काम भाव से करता है कि क्रियाओं को करते हुए भी क्रियाओं से लिप्त नहीं होता है । वीतराग साधना का यही मूल रहस्य है।
क्रियाकोश: एक महत्त्वपूर्ण संकलन प्राचीन आगम साहित्य में यत्र-तत्र क्रियाओं का उल्लेख बिखरा पड़ा है । कहीं पर कुछ वर्णन है तो कहीं पर कुछ । प्रबुद्ध पाठक भी उन सब उल्लेखों का एकत्र अनुसंधान एवं चिन्तन करने में कठिनाई अनुभव करता है । साधारण जिज्ञासु पाठकों की कठिनाई का तो कहना ही क्या ? कभी-कभी तो साधारण अध्येता इतनी उलझन में फँस जाता है कि सब कुछ छोड़कर किनारे ही जा बैठता है । श्री मोहनलालजी वाँठिया ने उन सब वर्णनों को कियाकोश के रूप में एकत्र संकलन कर वस्तुतः भारतीय वाङ्मय की एक उल्लेखनीय सेवा की है। मैं जानता हूँ, यह कार्य कितना अधिक श्रमसाध्य है। चिन्तन के पथ की कितनी विकट घाटियों को पार कर मंजिल पर पहुँचना होता है। प्रतिपाद्य विषय का विभिन्न भागों में वर्गीकरण कितना अधिक उलझन भरा होता है ? परन्तु श्री बाँठियाजी अपनी धुन के एक ही व्यक्ति हैं। उनका चिन्तन स्पष्ट है। वे वस्तुस्थिति को काफी गहराई
१-जयं चरे जयं चिठे जयमासे जयं सए ।
जयं भुंजन्तो भासन्तो पावं कम्मं न बंधई ।। दसवे० ४।८ २-न लिप्पई भवमझे वि सन्तो, जलेण वा पोक्खरिणीपलासं। उत्त० ३२१४७
[ 24 ]
"Aho Shrutgyanam"