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क्रिया-कोश
१६ को साधु श्रमण के रहने के निमित्त छोड़ दे --खाली कर दे तथा अपने लिए अन्यत्र अन्य भवनादि का निर्माण करे तो इस तथ्य को जानते हुए उस छोड़े हुए या खाली किये हुए भवन आदि में साध- श्रमण के रहने से भोगने से उनको वर्ज्यक्रिया होती है ।
- देखी भिक्षु और क्रिया
०४४५ सकिरिए - सक्रिय
सूय० श्रु २ । अ ४ ] सू ४ / पृ० १६८
मूल -- XXX एवं खलु भगवया अक्खाए असंजए अविरए अप्पडिश्यपच्चक्खायपावकम्मे सकिरिए असंवुडे एगंतदंडे एतबाले एगंतसुत्ते से बाले अवियारमणवय काययक्के सुविणमवि न पास पावे य से कम्मे कज्जइ । सावद्यक्रिया - सावद्यानुष्ठान करता हुआ जीव- सक्रिय । टीका - क्रियादिदोषदुष्ट इति ।
०४४६ सकिरियाणं -- सक्रियास्थानं
-- ठाण० स्था ५ । उ १ । सू. ३६८ । पृ० २५.७
पंचहि ठाणेहिं समणे निम्गंथे साहम्मियं संभोइयं विसंभोइयं करेमाणे णाइक्कम, तंजा - सकिरियद्वाणं पडिसेवित्ता भवइ । xxx
पाँच स्थान अर्थात् कारणों से श्रमण-निर्ग्रन्थ, अपने सांभोगिक स्वधर्मी को विसभोगिक बनाते हुए अर्थात् अपने गण से बाहर करते हुए, जिनाज्ञा का अतिक्रमण नहीं करते हैं । यथा- - ( एक ) सक्रियस्थान अर्थात् अशुभ कर्म के बंध से युक्त स्थान को विशेष रूप से सेवन करने वाले साधु को 1
०४४७ सकिरिया सक्रिय
-पण्ण० प २२ । सू १५७३ | पृ० ४७६
जो जीव क्रिया सहित हैं, क्रिया करते हैं वे सक्रिय हैं । शैलेशत्व को अप्राप्त संसारसमापनक जीव सक्रिय होते है । अतः तेरहवें गुणस्थान तक के जीवों को सक्रिय कहा
जाता है ।
०४४८ समुच्छिन्नकिरिया अनियट्टी - ( अप्पडिवाई )
'उत्तरायण' में समुच्छिन्नकिरियं अनियट्ठी तथा 'ठाणांग' में समुच्छिन्न किरिए अपडिवाई रूप मिलता है । यह शुक्लध्यान का चौथा भेद है । निर्वाणगामी जीव श्वासोच्छ्वासादि रूप सूक्ष्म क्रियाओं का निरोध करता हुआ सम्पूर्ण काययोग का निरोध करके शैलेशत्व को प्राप्त होता है । तब उस समय में उसके शुक्लध्यान का चौथा भेद समुच्छिन्न किरिया अनियट्टी ( अप्पडिवाई ) शुक्लध्यान होता है और इस ध्यान के द्वारा वह जीव श्वासोच्छ्वास का निरोध करता हुआ पाँच ह्रस्वस्वराक्षरों का उच्चारण किया जा
"Aho Shrutgyanam"