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क्रिया - कोश
एकवादी के मत का प्रतिपादन :
जहा य पुढवी, एगे नाणाहि दीसह । एवं भो ! कसिणे लोए, विन्नू नाणाहि दीसइ ||
- सूय० श्र १ । अ १ । उ १ । गा । पृ० १०१
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जिस प्रकार एक ही पृथ्वीस्तुप नाना प्रकार का दिखाई देता है उसी प्रकार यह आत्मस्वरूप सम्पूर्ण लोक में अलग-अलग प्रतिभास होता है लेकिन वास्तविकता में चेतनअचेतनरूप सम्पूर्ण लोक एक ही आत्मा है ।
टीका -- पृथिव्येव स्तूपा पृथिव्या वा स्तूपः पृथिवीसंघातावयवी । सवैकोपि यथा नानारूपः सरित्समुद्रपर्वतनगर सन्निवेशाद्याधारतया विचित्रो दृश्यते निम्नोन्नतमृदु कठिन रक्तगीतादिभेदेन वा दृश्यते । न च तस्य पृथिवीतत्त्वस्यैतावता भेदेन भेदो भवत्येवमुक्तरीत्या । भो इत्यादिपरामंत्रणं कृत्स्नोपि लोकश्चेतना चेतनरूप एको विद्वान् वर्तते । इदमत्र हृदयम् । एक एव ह्यात्मा विद्वान् ज्ञानपिण्डः पृथिव्याद्याकारतया नाना दृश्यते न च तस्यात्मन एतावताऽऽत्मतत्त्वभेदो भवति । तथा चोक्त
एक एव हि भूतात्मा भूते भूते व्यवस्थितः । एकधा बहुधा चैव दृश्यते जलचन्द्रवत् ।
यद्यपि पृथ्वी एक ही स्तूप है फिर भी अवयव रूप में अलग-अलग दिखाई देता है । पृथ्वी एक होने पर भी नदी, समुद्र, पर्वत, नगर, सन्निवेश आदि इसके विचित्र रूप परिलक्षित होते हैं । नीचा, ऊँचा, मृदु, कठिन, लाल, पीला आदि भेद से भी विभिन्न रूप में दिखाई देता है लेकिन वास्तव में पृथ्वी तत्त्व के उक्त प्रकार से भेद नहीं होते हैं । यह एक परामंत्रण उदाहरण मात्र है । इसी प्रकार चेतन-अचेतनमय समस्त लोक एक आत्मरूप है । यह हार्द है । एक आत्मा, विद्वान्, ज्ञानपिण्ड पृथ्वी के अवयव की तरह भिन्न भिन्न परिलक्षित होता है लेकिन वास्तविकता में वह एक ही आत्मतत्त्व है उसके भिन्न-भिन्न भेद नहीं होते हैं । जैसे कहा है – एक ही आत्मा सर्वभूतों में स्थित है, वह जल में चन्द्रमा के प्रतिबिम्ब की तरह एक या अनेक रूप में परिदशित होती हैं ।
तत्रैक एवात्मादिरर्थं इत्येवं वदसीत्येकवादी, दीर्घत्वं च प्राकृतत्वादिति, उक्त चैतन्मतानुसारिभिः—“एक एवहि भूतात्मा भूते भूते व्यवस्थितः । एकधा बहुधा चैक, दृश्यते जलचन्द्रवत् ॥ १ ॥ इति अपरस्त्वात्मैवास्ति नान्यदिति प्रतिपन्नः, तदुक्तम्“पुरुष एवेदं सर्वं यद्भूतं यच्च भाव्यम् । उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति । यदेजति यन्नेजति यद् दूरे यद्अन्तिके । यदन्तरस्य सर्वस्य यत्सर्वस्यास्य बाह्यतः इति (इत्यात्मा
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" Aho Shrutgyanam"