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क्रियां-कोश
१०३ (ख) अस्थि णं भंते ! जीवाणं अदिन्नादाणेणं किरिया कज्जइ ? हता, अत्थि । कम्हि णं भंते ! जीवाणं अदिन्नादाणेणं किरिया कजइ ? गोयमा ! गहणधारणिज्जेसु दव्वेसु, एवं नेरझ्याणं निरंतरं जाव वेमाणियाणं ।
–पण्ण० प २२ । सू१५७७ । पृ० ४७६ जीव अदत्तादान क्रिया ग्रहण और धारण करने योग्य द्रव्यों के विषय में करते हैं । अदत्तादानक्रिया यदि व्याघात नहीं हो तो छओं दिशाओं को और व्याघात होने से कदाचित् तीन दिशाओं को, कदाचित चार दिशाओं को और कदाचित पाँच दिशाओं को स्पर्श करती है। अदत्तादान क्रिया कृत है, अकृत नहीं है ; अदत्तादानक्रिया आत्मकृत है, परकृत या तदुभयकृत नहीं है। यह क्रिया अनुक्रमपूर्वक की जाती है बिना अनुक्रमपर्वक नहीं की जाती है। जो क्रिया की जा रही है तथा की जायेगी---यह सब अनुकमपर्वक की जाती है किन्तु विना अनुक्रमपूर्वक नहीं की जाती है ।
नारकी जीव भी अदत्तादानक्रिया ग्रहण और धारण करने योग्य द्रव्यों के विषय में करते हैं तथा यह क्रिया यावत नियमपूर्वक छौं दिशाओं को स्पर्श करती है तथा औधिक जीव की तरह अनुक्रमपूर्वक की जाती है ।
एकेन्द्रिय को छोड़कर यावत वैमानिक देव तक सब दंडकों में नारको के समान कहना चाहिए।
एकेन्द्रियों का कथन औधिक जीवों की तरह कहना चाहिए । ४६.४ अदत्तादानक्रिया और कर्मप्रकृति का बंध :
जीवे णं भंते ! पाणइवाएणं कल् कम्मपगडीओ बंधइ ? ................ " ( पूरे पाठ के लिए देखो क्रमांक २२५) ( एवं ) जाव मिच्छादसणसल्ले।
-पण्ण० प २२ । सू १५८१ से १५८४ । पृ० ४७६.८० अदत्तादानक्रिया करता हुआ जीव उसी प्रकार कर्म-प्रकृति का बन्ध करता है जैसा प्राणातिपातक्रिया करता हुआ जीव कर्मप्रकृति का बंध करता है । (देखो क्रमांक '२२५)
.५० अध्यात्म-प्रत्ययिक क्रिया ( स्थान ) ५०१ परिभाषा | अर्थ :. से जहानामए - केइ पुरिसे नत्थि णं केइ किंचि विसंवादेइ सयमेव हीणे दीणे दु? दुम्मणे ओय-मणसंकप्पे चिंता-सोग-सागर-संपविढे करयल-पल्हथ-मुहे अट्टझागोवगए-भूमि-गय-दिट्ठिए झियाइ, तस्स णं अज्झत्थया आसंसझ्या चत्तारि ठाणा एवमाहिज्जंति, तंजहा-कोहे, माणे, माया, लोहे, अज्झत्थमेव कोह-माण माया
"Aho Shrutgyanam"