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अंतक्रिया प्रारंभ करते हैं वह अंतक्रिया साधन भेद से चार प्रकार की होती है, यथा (१) जिस जीव के भगवान महावीर के समान तप भी नहीं होता है, परीषह उपसर्गादि की वेदना भी नहीं होती है लेकिन पुरुषार्थ वाली दीर्घकाल की दीक्षा पर्याय होती है ; तदनन्तर अंतक्रिया होती है, जैसे भरतचक्रवती की अंतक्रिया । (२) जिस जीव के भगवान महावीर के समान तप होता है, परीषह- उपसर्गादि को वेदना भी होती है लेकिन पुरुषार्थ वाली अल्पकाल की दीक्षा पर्याय होती है, तदनन्तर अंतक्रिया होती है, जैसे-श्रीकृष्ण रासुदेव के लघु भाई गजसुकमाल की अंतक्रिया । (३) जिस जीव के भगवान महावीर के समान तप होता है, परोषह---उपसर्गादि की वेदना भी होती है लेकिन पुरुषार्थ वाली दीर्घकाल की दीक्षा पर्याय होती है, तदनन्तर अंतक्रिया होती है, जैसे सनत्कुमार चक्रवर्ती की अंतक्रिया । (४) जिस जीव के भगवान महावीर के समान तप भी नहीं होता है, परीषह---उपसर्गादि की वेदना भी नहीं होती है और पुरुषार्थ वाली अल्पकाल की दीक्षा-पर्याय होती है, तदनन्तर अंत क्रिया होती है, जैसे भगवती मरुदेवी की अंतक्रिया। (देखें क्रमांक ७३२)
कृत समुद्घात अथवा समुद्घात किये बिना सयोगी केवली जीव जब चतुर्दश गुणस्थान में प्रवेश करते हैं तब उनके अंतर्महर्त-स्थिति-सीमित-संसाररूपा तथा समुच्छिन्न क्रिया अप्रतिपातिध्यानरूपा अंत क्रिया होती है। निश्चय दृष्टि से, वही क्रिया अंतक्रिया है जो चतुर्दश गुणस्थानवी जीव के शेष समय की सकलकर्मक्षयरूपा होती है, तत्पश्चात वह जीव सिद्धगति को प्राप्त होता है ।
सब संसारी जीव अनादि काल से कर्मों से बंधे हुए हैं। इन कर्मों से छुटकारा पाने के लिए भगवान महावीर का कहना है कि उत्थान कर्म-बल-वीर्य-पुरुषाकार-पराक्रम करना आवश्यक है। बिना उत्थान-कर्म-बल-वीर्य-पुरुषाकार-पराक्रम किये जीव बन्धे हुए कर्मों से मुक्ति नहीं पा सकता है। क्रिया शब्द का प्रयोग उत्थान-कर्म-बल-वीर्य-पुरुषाकारपराकम के पर्यायवाची रूप में भी होता है ।
__ जिस प्रकार कर्म को बांधने में क्रिया-वीर्य की आवश्यकता होती है उसी प्रकार कर्म को काटने में भी क्रिया-वीर्य की आवश्यकता होती है। क्रिया का एक रूप कर्म-पुण्यपाप को बाँधने का है और दूसरा रूप कर्म को काटने का है। बिना क्रिया किये कर्म कट नहीं सकते हैं। इसलिए भगवान महावीर ने नियतिवाद का निरसन करने के लिए कियावाद का प्रतिपादन किया। इस सम्बन्ध में शक डाल पुत्र कुम्हार की जीवन-कथा सुप्रसिद्ध है जो नियतिवादी था तथा भगवान ने उसे समझाकर क्रियावादी बनाया था । भगवान अपने समय के आचार्यों में क्रियावादी आचार्य रूप में सुप्रसिद्ध थे। भगवान गौतम बुद्ध ने
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