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________________ अन्य सदनुष्ठान क्रियाओं का इस प्रकार वर्णन मिलता है । दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप, विनय, सत्य, समिति, गुप्ति आदि क्रियायें । इन कियाओं को भावरुचि से करने वाले जीव को क्रियारूचि सम्यक्त्वी कहा गया है। दर्शन क्रिया अर्थात् दर्शन को विशोधि की चेष्टा, ज्ञान क्रिया अर्थात् स्वाध्याय आदि से सम्यग् ज्ञान की वृद्धि की चेष्टा, चारित्र क्रिया अर्थात सावद्य योगों से निवृत्त होने की चेष्टा, तपक्रिया अर्थात निर्जरा के द्वारा बंधे हुए कर्मों को काटने की चेष्टा, विनय क्रिया अर्थात सुगुरु आदि के विनय-वंदन आदि की चेष्टा, सत्य क्रिया अर्थात् मन, वचन, काय को सत्य में अभिनिविष्ट करने रूप चेष्टा, समितिक्रिया अर्थात अवश्य करने वाली ईर्या आदि क्रियाओं को संयम से करने की चेष्टा तथा गुप्तिक्रिया अर्थात् मन, वचन, काय योगों का सम्यग्दर्शन पूर्वक निग्रह करने की चेष्टा । । सदनुष्ठान क्रियाओं में अक्रिया उत्कृष्ट क्रिया है। शुक्लध्यान के चौथे पाद समुच्छिन्नक्रिया अप्रतिपाति ध्यान ही चरम सदनुष्ठान क्रिया है। इसके बाद जीव कोई क्रिया नहीं करता है। इसी से अक्रिया होती है । तत्पश्चात् जीव सिद्धगति को गमन करता है । कहा जा सकता है कि योगनिरोध ही अक्रिया है क्योंकि समुच्छिन्न क्रिया अप्रतिपाति ध्यान से जीव काययोग तथा अन्यान्य सूक्ष्म क्रियाओं का निरोध करता है और योग का निरोध होने से शैलेशीकरण की अवस्था में ऐपिथिक तथा एजनादि क्रियाएँ बंद हो जाती हैं और इन क्रियाओं का अभाव अक्रिया है । अक्रिया का योगनिरोध रूप एक हो भेद है । भगवती, स्थानांग तथा उत्तराध्ययन में थोड़ा भिन्न प्रकार से वर्णन है । वहाँ अक्रिया को व्यवदान ( कर्मक्षय ) का फल कहा गया है और क्रिया से जीव सिद्धगति रूप अंतिम फल को प्राप्त करता है । [ देखें क्रमांक '७२ ] जीव की वह अंतिम क्रिया, जिससे भव का व्यवच्छेद हो, सकल कर्म का क्षय हो, कर्मों से सर्वथा मुक्ति हो, सिद्धगति की प्राप्ति हो वह अंतक्रिया है । यह अंतिम पर्याय में योग निरोधित एजनादि रहित जीव के शुक्लध्यान के चतुर्थ भेद से सकल कर्म के दाह रूप होती है | देखें क्रमाक ७३.१] 1 ___जीव अंतक्रिया विविध प्रकार से विभिन्न अवस्थाओं में प्रारंभ करता है । कहा जा सकता है कि जब जीव संसार को परीत कर लेता है अर्थात् देशोन अर्द्ध पुद्गलपरावर्तन रूप मोक्ष जाने की सीमा बाँध लेता है तो एक दृष्टि से, तब से ही उसकी अंतक्रिया प्रारंभ हो जाती है। दूसरी दृष्टि से, जब जीव कुछ एक भव में मोक्ष जाने की सीमा कर लेता है तब से अंतक्रिया करना प्रारंभ करता है। तीसरी दृष्टि से, जीव जिस भव में मोक्ष जाता है उस भव में जब वह मुडित होकर अणगार बनता है तब से वह अन्तक्रिया प्रारंभ करता है । जिस भव में जीव मोक्ष जाते हैं उसी भव में मुण्डित होकर जो [ 43 "Aho Shrutgyanam"
SR No.009528
Book TitleKriya kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1969
Total Pages428
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size9 MB
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