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जीव सदा एजन कंपन समूह की क्रिया करता रहता है । यहाँ जीव से सयोगी जीव का ही ग्रहण करना चाहिए। एजन समूह की कुछ क्रियाओं के नाम इस प्रकार हैं ; एजना, व्येजना, चलना, स्पन्दना, घना, छटपटाना, उदीरणा। टीकाकार अभयदेवसूरि ने कहा है कि इस प्रकार की अन्यान्य क्रियाओं का संग्रह कर लेना चाहिए । इन क्रियाओं को जीव सदा करता है-इसका अर्थ यह नहीं लेना चाहिए कि इन क्रियाओं को जीव सदा एक साथ करता है बल्कि यह अर्थ लेना चाहिए कि इन क्रियाओं को क्रमवार करता है अर्थात् इन क्रियाओं में से किसी न किसी एक क्रिया को करता ही रहता है । इन क्रियाओं को करता हुआ जीव उन क्रियाओं के अनुरूप भावों में परिणमन करता रहता है । परिणमन का अर्थ टीकाकार ने यहाँ इस प्रकार किया है—जीव इन एजनादि क्रियाओं से उत्क्षेपण, अवक्षेपण, आकुंचन, प्रसारण आदि परिणामों---पर्यायों को प्राप्त होता रहता है ; अर्थात् जीव के आत्मप्रदेश उत्क्षेपण, अवक्षेपण, आकुंचन, प्रसारण आदि करता रहता है। अतः एजनादि क्रिया करता हुआ जोव सकलकर्मक्षयरूया अन्तक्रिया नहीं कर सकता है ; क्योंकि एजनादि क्रिया करता हुआ जोव तथा तदनुरूप भाव में परिणमन करता हुआ जीव आरम्भ, संरम्भ, समारम्भ करता है । आरम्भ, संरम्भ, समारम्भ में वर्तन करता है तथा आरम्भ, संरम्भ, समारम्भ में वर्तन करता हुआ जीव बहु प्राण-भूत-जीव-सत्त्वों को दुःख देता है, शोक उत्पन्न करता है, खेदित-पीड़ित करता है, त्रास उत्पन्न करता है, कष्ट देता है अतः एजनादि क्रिया करता हुआ जीव अंतक्रिया नहीं कर सकता है ।
जो जीव सदा एजनादि क्रिया नहीं करता है तथा तदनुरूप भावों में परिणमन नहीं करता है वह जीव अंत समय में अंतक्रिया करता है ।
सदनुष्ठान क्रियाओं के कई पर्यायवाची शब्द होते है, यथा-सदनुष्ठान, संयमानुष्ठान, सक्रिया, सम्यगनुष्ठान, धर्मानुष्ठान, चरण आदि। इन सब क्रियाओं से कर्मों का छेदन होता है, आस्रव रुकता है तथा पुण्यकर्म का बन्धन होता है ।
सदनुष्ठान क्रियाओं में छः क्रियाएँ आवश्यक-अवश्य करणीय बतलायी गई हैं और इनका वर्णन आवश्यक सूत्र में किया गया है। सामायिक आवश्यक क्रिया---अर्थात सर्वसावध योग निवृत्ति लक्षण होती है ; चतुर्विशतिस्तव आवश्यक क्रिया अर्थात् तीर्थङ्कर गुणानुकीर्तन रूप होती है ; वंदना आवश्यक क्रिया अर्थात मन, वचन, काय की शुद्धि-पूर्वक क्षमाश्रमण देव-गुरु के वंदन रूप होती है ; प्रतिक्रमण आवश्यक क्रिया अर्थात् अतीत दोष निर्वतन रूप होती है ; कायोत्सर्ग क्रिया अर्थात् परिमित काल के लिए शरीर के महत्त्व की निवृत्ति रूप होती है तथा प्रत्याख्यान आवश्यक क्रिया में अनागत काल के दोषों का अपोहन अर्थात् परित्याग होता है ।
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"Aho Shrutgyanam"