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________________ ३८ क्रिया-कोश कदाचित चार दिशाओं को और कदाचित पाँच दिशाओं को स्पर्श करती है । परिग्रह की क्रिया कृत है, अकृत नहीं है; परिग्रह की क्रिया आत्मकृत है, परकृत या तदुभयकृत नहीं है । यह क्रिया अनुक्रमपूर्वक की जाती है बिना अनुक्रमपूर्वक नही की जाती है । नारकी जीव भी परिग्रह की क्रिया सब द्रव्यों के विषय में करते हैं तथा यह क्रिया यावत् नियमपूर्वक छओं दिशाओं को स्पर्श करती है एवं औधिक जोव की तरह अनुक्रमपूर्वक की जाती है । एकेन्द्रिय को छोड़कर यावत् वैमानिक देव तक सब दण्डकों में नारकी के समान कहना चाहिये । एकेन्द्रियों का कथन औधिक जीवों की तरह कहना चाहिये । -१४ ५ पारिप्रहिकी क्रिया और कर्मप्रकृति का बन्धन : जीवे णं भंते । पाणाश्वाएणं कइ कम्मपगडीओ बंधइ ?' ( पूरे पाठ के लिये देखो क्रमांक २२५ ) ( एवं ) जाव मिच्छादंसणसल्ले । --- पण्ण० प २२ । सू १५८४ | पृ० ४७६-४८० पारिग्रहिकी क्रिया करता हुआ जीव उसी प्रकार कर्म प्रकृति का बन्ध करता है जैसा प्राणातिपात क्रिया करता हुआ जीव कर्मप्रकृति का बन्ध करता है । ( देखो क्रमांक २२५ ) • १५ मायाप्रत्ययिकी क्रिया ( स्थान ) * १५१ परिभाषा / अर्थ- (क) माया -- शाठ्यं प्रत्ययो - निमित्तं यस्याः कर्मबन्धक्रियाया व्यापारस्य वासा ( मायाप्रत्ययिकी ) -ठान स्था २ । उ १ । सू ६० । टीका (ख) 'मायावत्तिय' ति मायाऽनार्जवम्, उपलक्षणत्वात् क्रोधादिरपि च ; सा प्रत्ययः कारणं यस्याः सा मायाप्रत्यया । (ग) माया - अनार्जवमुपलक्षणत्वात् कारणं यस्याः सा मायाप्रत्यया । - भग० श १ | उ २ । प्र ८० । टीका क्रोधादेरपि परिग्रहः मायाप्रत्ययः - -- पण० प २२ । सू १६२४ । टीका (घ) मायाक्रिया तु मोक्षसाधनेषु ज्ञानादिषु मायाप्रधानस्य प्रवृत्तिः । सिद्ध‍ अ ६ । सू ६ । घृ० १३ (ङ) ज्ञानदर्शनादिषु निकृतिर्वञ्चनं मायाक्रिया । - सर्व ० ० अ ६ । सू ५ / पृ० ३२३ / ला १-२ -राज० अ ६ । सू ५ | पृ० ५१० । ला १२ (च) दुर्वक्तृकवचो ज्ञानादौ सा मायादिक्रिया परा । - श्लोवा० अ ६ । सू५ । गा २४ । पृ० ४४५ "Aho Shrutgyanam"
SR No.009528
Book TitleKriya kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1969
Total Pages428
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size9 MB
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