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________________ ३६ क्रिया-कोश (छ) मायापरवञ्चनबुद्धिस्तया दण्डो मायाप्रत्ययिकः । -सूय० श्रु २ । अ २ । सू १० । टीका माया अर्थात् अनार्जव-शठता--कपट के निमित्त जो क्रिया होती है वह मायाप्रत्यायिकी किया है। उपलक्षण से क्रोध, मान तथा लोभ के निमित्त से होनेवाली क्रिया भी इसमें सम्मिलित कर लेनी चाहिए । १५.२ भेद मायावत्तिया किरिया दुविहा पन्नत्ता, तंजहा—आयभाववंकणया चेव परभाववंकणया चेव ।। -ठाण० स्था २ । उ १ । सू६० । पृ० १८६ मायाप्रत्ययिकी किया के दो भेद होते हैं, यथा- आत्मभाववंकनता तथा परभाववंकनता। १५.३ भेदों की परिभाषा / अर्थ-- १ आत्मभाववंकनता 'आयभाववंकणया चेव' ति आत्मभावस्याप्रशस्तवंकनता-वक्रीकरणं प्रशस्तत्वोपदर्शनता आत्मभाववंकनता, वंकनानां च बहुत्वविवक्षायां भावप्रत्ययो न विरुद्धः, सा च क्रियाव्यापारत्वात् । -ठाण० स्था २ । उ १ । सू ६० । टीका जहाँ आत्मभाव अप्रशस्त हो लेकिन ऊपर से प्रशस्त भाव दिखलाया जाय ( विषकुम्भम् पयोमुखम् ) वहाँ आत्मभाववंकनता क्रिया होती है ; अर्थात झूठा प्रशस्त भाव दिखलाना आत्मभाववंकनता क्रिया है । वंकनता को बहुप्रकार की विवक्षा के कारण भावप्रत्यय विरुद्ध नहीं पड़ता है, क्योंकि वह वंकनता व्यापार रूप होने के कारण क्रिया है । २ परभाववंकनता 'परभाववंकणया चेव' त्ति परभावस्य वंकनता-वंचनता या कूटलेखकरणादिभिः, सा परभावकनतेति, यतो वृद्धव्याख्येयं.--"तं तं भावमायर जेण परो वंच्चिजइ कूडलेहकरणाईहिं" ति । -ठाण० स्था २ 1 उ १ । सू ६० । टीका परभाववंकनता क्रिया अर्थात् झूठे दस्तावेज आदि द्वारा दूसरों को ठगने के अभिप्राय से की गई क्रिया। एक वृद्धाचार्य कहते है--जो कूट लेखादि ( झूठे दस्तावेजों ) द्वारा दूसरों को ठगता है वह उन-उन ( पूर्व लिखित ) भावों में आचरण करता है । नोट :-मायाप्रत्ययिकी क्रिया का विवेचन आरम्भिकी पंचक (क्रमांक ६५) में भी देखो। "Aho Shrutgyanam
SR No.009528
Book TitleKriya kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1969
Total Pages428
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size9 MB
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