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क्रिया-कोश (छ) मायापरवञ्चनबुद्धिस्तया दण्डो मायाप्रत्ययिकः ।
-सूय० श्रु २ । अ २ । सू १० । टीका माया अर्थात् अनार्जव-शठता--कपट के निमित्त जो क्रिया होती है वह मायाप्रत्यायिकी किया है। उपलक्षण से क्रोध, मान तथा लोभ के निमित्त से होनेवाली क्रिया भी इसमें सम्मिलित कर लेनी चाहिए ।
१५.२ भेद
मायावत्तिया किरिया दुविहा पन्नत्ता, तंजहा—आयभाववंकणया चेव परभाववंकणया चेव ।।
-ठाण० स्था २ । उ १ । सू६० । पृ० १८६ मायाप्रत्ययिकी किया के दो भेद होते हैं, यथा- आत्मभाववंकनता तथा परभाववंकनता।
१५.३ भेदों की परिभाषा / अर्थ--
१ आत्मभाववंकनता
'आयभाववंकणया चेव' ति आत्मभावस्याप्रशस्तवंकनता-वक्रीकरणं प्रशस्तत्वोपदर्शनता आत्मभाववंकनता, वंकनानां च बहुत्वविवक्षायां भावप्रत्ययो न विरुद्धः, सा च क्रियाव्यापारत्वात् । -ठाण० स्था २ । उ १ । सू ६० । टीका
जहाँ आत्मभाव अप्रशस्त हो लेकिन ऊपर से प्रशस्त भाव दिखलाया जाय ( विषकुम्भम् पयोमुखम् ) वहाँ आत्मभाववंकनता क्रिया होती है ; अर्थात झूठा प्रशस्त भाव दिखलाना आत्मभाववंकनता क्रिया है । वंकनता को बहुप्रकार की विवक्षा के कारण भावप्रत्यय विरुद्ध नहीं पड़ता है, क्योंकि वह वंकनता व्यापार रूप होने के कारण क्रिया है ।
२ परभाववंकनता
'परभाववंकणया चेव' त्ति परभावस्य वंकनता-वंचनता या कूटलेखकरणादिभिः, सा परभावकनतेति, यतो वृद्धव्याख्येयं.--"तं तं भावमायर जेण परो वंच्चिजइ कूडलेहकरणाईहिं" ति । -ठाण० स्था २ 1 उ १ । सू ६० । टीका
परभाववंकनता क्रिया अर्थात् झूठे दस्तावेज आदि द्वारा दूसरों को ठगने के अभिप्राय से की गई क्रिया।
एक वृद्धाचार्य कहते है--जो कूट लेखादि ( झूठे दस्तावेजों ) द्वारा दूसरों को ठगता है वह उन-उन ( पूर्व लिखित ) भावों में आचरण करता है ।
नोट :-मायाप्रत्ययिकी क्रिया का विवेचन आरम्भिकी पंचक (क्रमांक ६५) में भी देखो।
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