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क्रिया - कोश
* १५४ मायाप्रत्ययिकी क्रिया तथा जीवदंडक :
(क) अस्थि णं भंते ! जीवा णं परिग्गद्देणं किरिया कज्जइ ? हंता, अस्थि । कम्हि णं भंते! जोवा णं परिग्गणं किरिया कज्जर ? गोयमा ! सव्वदव्वेसु, एवं नेरइयाणं जाव वैमाणियाणं एवं XXX मायाए xxx । सव्वैसु जीवनेरख्यभेदेसु (णं) भाणियव्वा निरंतरं जाव वैमाणियाणं ति ।
पण० प २२ / सू १५७६.८० पृ ४७६ किसी जीव या अजीव वस्तु के प्रति छल-कपट भाव लाना माया है। ये भावकषाय मोहनीय कर्म के उदय या उदीरणा से उत्पन्न होते हैं । मायाक्रिया अजीव तथा जीव सभी द्रव्यों के प्रति जीव करते हैं। नारकी से लेकर वैमानिक देव तक के जीव सभी द्रव्यों के प्रति माया से क्रिया करते हैं ।
(ख) अस्थि णं भंते ! जीवाणं पाणाश्वाएणं किरिया कज्जइ ? हंता, अत्थि xxx । एगिंदिया जहा जीवा तहा भाणियव्वा, जहा पाणाश्चाए तहा xxx कोहे जाव मिच्छादंसण सल्ले । ( देखो २२४ )
भग० श १ । उ ६ । प्र २१५ / पृ० ४०३ जीव माया से क्रिया करते हैं । मायाक्रिया यदि व्याघात नहीं हो तो छओं दिशाओं को और व्याघात होने से कदाचित तीन दिशाओं को, कदाचित् चार दिशाओं को, कदाचित पाँच दिशाओं को स्पर्श करती है । माया- क्रिया आत्मकृत है, परकृत या उभयकृत नहीं है । यह क्रिया अनुक्रमपूर्वक भी की जाती है।
जाती है, बिना अनुक्रमपूर्वक नहीं की
नारकी जीव भी माया - किया सब द्रव्यों के विषय में करते हैं तथा यह क्रिया यावत नियमपूर्वक छओं दिशाओं को स्पर्श करती है तथा औधिक जीव की तरह यावत् अनुक्रमपूर्वक की जाती है । /
एकेन्द्रिय को छोड़कर यावत् वैमानिक देव तक सब दंडको में नारकी के समान कहना चाहिए ।
एकेन्द्रियों का कथन औधिक जीवों की तरह कहना चाहिए ।
-१५५ माया प्रत्ययिक क्रियारत व्यक्ति :
जे इमे भवंति गूढायारा तमोकसिया
उलुगपत्त- लहुया पव्वय गुरुया ते आरिया वि संता अणारियाओ भासाओ वि पउज्ज ति; अन्नहासन्तं अप्पाणं अन्नहा मन्नंति; अन्नं पट्टा अन्नं वागरंति; अन्नं आइविवयवं अन्नं आइक्खति ।
से जहानाम-केई पुरिसे अन्तोसल्ले तं सल्लं णो सयं निहरs, नो अन्नेणं निहरावे, नो पडिविद्धंसेइ एवमेव निण्हवे, अविउट्टमाणे अंतो- अंतो रियइ |
"Aho Shrutgyanam"