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________________ क्रिया-कोश ४१ एवमेव माई मायं कट्टु नो आलोएर, नो पडिक्कमेत्र, नो निन्दइ, नो गहरइ, नोविनो विसोहेऊ, नो अकरणाए अब्भुट्टो, नो अहारिहं तवोकम्मं पायच्छित्तं पडिवज्जर; माई अस्सिं लोए पञ्चाया, माई परंसि लोर पुणो पुणो पञ्चाया निंदर गर पसंसउ निच्चरइ न नियट्टर, निसिरियं दंड छाएर, माई असमाहउ - सुहलेस्से यावि भवः । एवं खलु तस्स तपत्तियं सावजं ति आहिज्जइ । एक्कारसमे किरियडाणे मायावत्तिए त्ति आहिए । —सूत्र० श्रु २ । अ २ / सू १२ | पृ० १४८ कई व्यक्ति गूढाचारी होते हैं जो पहले विश्वास जमा कर पीछे धोखा देते हैं । कई व्यक्ति तमकाषिका मायाचारी --- बगुला भगत होते हैं जो अपने आचरण को छिपाकर लोगों को धोखे में रखते हैं । वे उल्लू के पंख के समान तुच्छ होने पर भी अपने को पर्वत के समान महान् बताते हैं । आर्य होते हुए भी वे अनार्य भाषा का प्रयोग करते हैं । वे जैसे हैं उससे अपने को अन्यथा भिन्न मानते हैं, यथा--नीम के पत्ते को आम का पत्ता मानना ! उनसे पूछा कुछ और ही जाता है और वे जवाब कुछ और ही देते हैं ! कहना चाहिए वहाँ उससे विपरीत कहते हैं । जहाँ जो जिस प्रकार किसी व्यक्ति के शल्य-शूल को आन्तरिक चोट लग गई हो और वह उस शल्य को न स्वयं निकालता है, न दूसरों से निकलवाता है, न औषधिदि के उपचार से उसका विनाश कराता है और जानता हुआ भी उस शूल की व्यथा को छिपाता है; पूछने पर बतलाता भी नहीं है-भीतर ही भीतर शुलजनित पीड़ा-व्यथा से दुःखी होता है । वैसे हो मायावी व्यक्ति छल-कपट करके या अकृत्य कार्य करके उसकी आलोचना, प्रतिक्रमण, निन्दा, गह नहीं करता है, उन दोषों को मिटाता नहीं है, उनका विशोधन नहीं करता है, भविष्यत् में ऐसा नहीं करने का निश्चय भी नहीं करता है, उन दोषों के यथायोग्य तपादि प्रायश्चित्त भी स्वीकार नहीं करता है। ऐसे मायावी व्यक्ति का इस लोक में भी कोई व्यक्ति विश्वास नहीं करता है; परलोक में भी बार-बार नीच गति या योनि में उत्पन्न होता है। मायावी व्यक्ति पर की निन्दा करता है, गर्हा करता है, अपनी सच्चीझूठी प्रशंसा करता है । वह अकार्य -- बुरे काम करता है, उनको छोड़ता नहीं है बल्कि छिपाता है । यदि ऐसे मायावी व्यक्ति के शुभलेश्या हो भी तो वह असमाहित-अशुद्ध होती है । ऐसे मायावी व्यक्ति को इस प्रकार मायाप्रत्ययिक सावद्यक्रिया लगती है । यह ग्यारहवाँ मायाप्रत्ययिक क्रियास्थान है । '१५·६ मायाप्रत्ययिकी क्रिया और कर्मप्रकृति का बंध : -- ( पूरे पाठ के जीवे णं भंते! पाणाश्वाएणं कइ कम्मपगडीओ बंधइ ?... लिये देखो २२५ ) ( एवं ) जाव मिच्छादंसणसल्ले । पण्ण० प २२ । सू १५७६-८० | पृ० ४७६-८० ६ "Aho Shrutgyanam"
SR No.009528
Book TitleKriya kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1969
Total Pages428
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size9 MB
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