SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 286
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ क्रिया - कोश ऐसा कहनेवाले श्रमण-ब्राह्मण सिद्ध-बुद्ध-मुक्त-परिनिवृत्त नहीं होगे यावत् सर्व दुःखों का अन्त नहीं करेंगे अर्थात् अन्तक्रिया नहीं करेंगे । २२२ '७३१२२ प्रथम बारह क्रियास्थान में वर्तमान जीव अंतक्रिया नहीं करता :-- इच्चेहिं बारसहि किरियाठाणेहिं वट्टमाणा जीवा नो सिज्भिसु, नो बुझिसु, नो मुबिसु, नो परिणिव्वाईसु-- जाव- नो सव्वदुक्खाणं अंत करें वा करेंति वा नो करिस्सति वा । - सूय ० श्रु २ । अ २ । सू २७ । पृ० १५६ इन बारह अर्थदण्ड यावद लोभप्रत्ययिक क्रियास्थानों में वर्तमान जीव अतीतकाल में सिद्ध-बुद्ध-मुक्त-परिनिवृत्त नहीं हुए हैं यावत् सर्व दुखों का वर्तमानकाल में करते हैं न भविष्यत्काल में करेंगे । अन्त नहीं किये हैं । *७३१२३ असंवृत अनगार अंतक्रिया नहीं करता है. असंवुडे णं भंते! अणगारे किं सिज्माइ, बुझाइ, मुच्चइ, परिनिव्वायर, सव्वदुक्खाणं अंत करेइ ? गोयमा ! णो णट्ठे समझे । सेकेणणं जाव णो अंतं करे ? गोयमा ! असंवुडे अणगारे आउयवज्जाओ सत्तकम्मपगडीओ सिढिलबंधनबद्धाओ धणियबंधणबद्धाओ पकरेइ हस्सकालठिश्याओ दीहकालठियाओ पकरेइ | मंदाणुभावाओ तिव्वाणुभावाओ पकरेइ, अप्पपएसग्गओ बहुप्पएसग्गओ पकरे, आयं चणं कम्मं सिय बंध‍ सिय णो बंध अस्सायावेयणिज्जं च णं कम्मं भुज्जो भुज्जो उवचिणइ, अणाइयं च णं अणवद्ग्गं दीहमद्धं चाउरंतसंसारकंतारं अणुपरियट्टइ, से तेणं गोयमा ! असंवुडे अणगारे णो सिज्झइ जाव ( णो बुज्झइ णो मुच्चर णो परिनिव्वाइ, सव्वदुक्खाणं ) णो अतं करेइ । -भग० श १ । उ १ । प्र० ५६-५७ । पृ० ३८६-६० असंवृत अणगार सिद्ध-बुद्ध-मुक्त नहीं होता है, परिनिर्वाण को प्राप्त नहीं करता है, सर्व दुःखों का अन्त नहीं करता है क्योंकि असंवृत अणगार आयुकर्म को छोड़कर शिथिल बंधन से बाँधी हुई सात कर्मप्रकृतियों को गाढ़ रूप से बाँधना प्रारम्भ करता है; अल्पकालीन स्थितिवाली कर्मप्रकृतियों को दीर्घकालीन स्थिति वाली करता है; मंदानुभाव वाली को तोत्रानुभाव वाली करता है; अल्प प्रदेश वाली को बहु प्रदेश वाली करता है; आयुष्य कर्म को कदाचित् बाँधता है और कदाचित नहीं बाँधता है; असातावेदनीय कर्म का बारम्बार उपार्जन करता है ; अनादि-अनन्त दीर्घ मार्ग वाले चातुर्गतिक संसार रूपी अरण्य में बार-बार पर्यटन करता है । इस कारण से असंवृत अणगार सिद्ध, बुद्ध, मुक्त नहीं होता है यावत् सर्व दुःखों का अन्त नहीं करता है । "Aho Shrutgyanam"
SR No.009528
Book TitleKriya kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1969
Total Pages428
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy