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क्रिया कोश
२२३ -७३.१२.४ छद्मस्थ--- अवधिज्ञानी- परमावधिज्ञानी अंतक्रिया नहीं करते हैं :--
छउमत्थे णं भंते ! मणुस्से अतीतं, अणतं, सासयं समयं केवलेणं संजमेणं, केवलेणं संवरेणं, केवलेणं बंभचेरवासेणं, केवलाहिं पवयणमाईहिं सिन्झिसु, बुझिसु जाव--सव्वदुक्खाणं अतं करिसु ?
गोयमा ! जो इण? सम? । से केण?णं भंते ! एव वुइ-तं चेव जाव-अंतं करेंसु ?
गोयमा ! जे केइ अकरा वा, अंतिमसरीरिया या सव्वदुक्खाणं अंत करेंसु वा, करेंति वा, करिस्संति वा, सव्वे ते उप्पण्णणाणदसणधरा, अरहा, जिगा, केवली भवित्ता, तओ पच्छा सिझति, बुझ ति, मुच्चंति, परिणिव्वायंति, सम्वदुक्खाणं अंतं करेंसु वा, करेंति वा, करिस्संति वा; से तेण?णं गोयमा ! जाव--सव्वदुक्खाणं अंतं करेंसु; पडुप्पन्ने वि एवं चेव, नवरं-'सिज्मंति' भाणियव्वं, अणागये वि एवं चेत्र, नवरं-'सिज्झिासंति' भाणियव्वं ।
जहा छउमत्थो तहा आहोहिओ वि, तहा परमाहोहिओ वि; तिण्णि तिणि आलाचगा भाणियव्वा ।
--भग० श१। उ ४ । प्र० १५६-६० } पृ० ३६८
--भग श ५ । उ ५। प्र १ ! पृ० ४७६
-भग० श ७ । उ ८। प्र ११ पृ० ५२२ बीते हुए अनन्त शाश्वत काल में छद्मस्थ मनुष्य केवल संयम से, केवल संवर से, केवल ब्रह्मचर्यवास से और केवल प्रवचनमाता से सिद्ध नहीं हुआ है, बुद्ध नहीं हुआ है यावत् सर्व दुःखों का अन्त करनेवाला नहीं हुआ है।
क्योंकि जो कोई जीव कर्मों का अन्त करने वाले और चरमशरीरी हुए है वे सब उत्पन्न जान-दर्शनधारी, अरिहन्त, जिन, केवली होकर फिर सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हुए हैं और निर्वाण को प्राप्त हुए हैं तथा समस्त दुःखों का अन्त किये हैं, करते हैं, करेंगे।
वेसे केवली अतीतकाल में सिद्ध आदि हुए हैं, वर्तमान काल में सिद्ध आदि होते हैं, भविष्यत् काल में सिद्ध, बुद्ध, मुक्त होंगे यावत् सर्व दुःखों का अन्त करेंगे।
छदमस्थ मनुष्य की तरह अवधिज्ञानी-परमावधिज्ञानी भी अतीतकाल में सिद्ध, बुद्ध, मुक्त नहीं हुए हैं यावत् सर्व दुःखों का अन्त नहीं किये हैं, वर्तमान में नहीं करते हैं तथा भविष्यत् काल में नहीं करेंगे।
टीका--इह छद्मस्थोऽवधिज्ञानरहितोऽवसेयः, न पुनरकेवलिमात्रम् ।
उपयुक्त पाठ में 'छद्मस्थ' शब्द से अवधिज्ञान से रहित जीव को ग्रहण करना चाहिए। अकेवली मात्र को छदमस्थ नहीं समझना चाहिये।
"Aho Shrutgyanam"