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क्रिया-कोश माणे चरिमकालसमयंसि ईगालब्भूए, मुम्मुरब्भूए, छारियम्भूए, तओ पच्छा अपकम्मतराए चेव अप्पकिरिया ऽऽव-अप्पवेयणतराए चेव भवइ ? हंता ; गोयमा ! अगणिकाए णं अहुणोजलिए समाणे तं चेव ।
-भग० श ५। उ ६ । प्र६ । पृ० ४८१ तत्काल प्रज्वलित हुई अग्निकाय महाकर्म वाली, महाकिया वाली, महानव वाली, महावेदना वाली होती है। समय-समय बुझती हुई-चरम समय में अंगार रूप मुर्मुर रूपराख हो जाती है तब वह अग्निकाय अल्प कर्मवाली, अल्प क्रियाबाली, अल्प आस्रववाली, अल्प वेदनावाली होती है।
विश्लेषण :-सद्यः प्रज्वलित अग्निकाय बहुत कर्मों का बंधन करती है अत: महाकर्म वाली होती है ; उस अग्निकाय की दाहक्रिया तीव्र होती है जिससे बहुत पृथ्वीकायिकादि जीवों का समारंभ होता है अतः महा क्रिया वाली होती है ; वह अग्निकाय बहुत नये कौं का उत्पादन हेतु होने के कारण महा आस्तववाली होती है तथा पारस्परिक शरीर-संघात से उत्पन्न होने वाली महान पीड़ा के कारण वह महावेदना वाली होती है। .
इसी प्रकार बुझती हुई अग्निकाय की दाह क्रिया की तीव्रता ह्रास पाती रहती है अतः वह क्रमशः अल्पकर्म, अल्पक्रिया, अल्प आस्रव, अल्पवेदना वाली होती जाती है तथा सर्व शेष में दाह-प्रक्रिया समाप्त होकर-सर्वथा बुझकर राख में परिणत हो जाती है तब टीकाकार के अनुसार एस राख रूप अग्निकाय के कर्म, क्रिया, आस्रव, वेदना का अभाव हो जाता है।
.२ महाकर्म-क्रिया-आस्रव-वेदनावाले जीव की अपेक्षा
से गूणं भंते ! महाकम्मस्स, महाकिरियरस, महासवयस्स, महावेयणस्स, सठवाओ पोग्गला बझंति, सव्वओ पोग्गला चिजति सव्वओ पोग्गला उवचिज ति; सया समियं पोग्गला बझति, सया समियं पोग्गला चिजति, सया समियं पोग्गला उवचिज ति; सया समियं च णं तस्स आया दुरूवत्ताए, दुवण्णत्ताए, दुगंधत्ताए, दुरसत्ताए, दुफासत्ताए, अणिस्ताए, 'अकंत-अप्पिय-असुभ-अमणुण्ण-श्रमणामत्ताए, अणच्छियत्ताए, अभिज्झियत्ताए, अहत्ताए–णो उद्धृत्ताए, दुक्खत्ताए--णो सुहत्ताए भुजो-भुज्जो परिणमंति।
हंता गोयमा । महाकम्मस्स तं चेव । से केण?णं ?
गोयमा ! से जहाणामए वत्थस्स अहयस्स वा, धोयस्स वा, तंतुग्गयस्स वा आणुपुत्वीए परिभुज्जमाणस्स सव्वओ पोग्गला बज्झति, सव्वओ पोग्गला चिज ति जाव–परिणमंति, से तेण?णं। -भग० श ६ । उ ३ । प्र१-२ । पृ० ४६२-४६३
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