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क्रिया-कोश
३३५ विरतः -प्रतिनिवृत्तः सावधयोगविरतो, ज्ञपरिज्ञया प्रत्याख्यानपरिज्ञया च परिज्ञातसमस्तसावद्ययोगः, किमुक्त भवति ?-निरुद्धसूक्ष्मबादरमनोवाक्कायव्यापारो विगतक्रियानिवर्तिध्यानमधिरूढः शैलेशीप्रतिपन्नो नामात्मा सामायिकमिति, एवं चाप्रमत्तसंयतादीनां व्यवच्छेदः, तेषां मनोवाक्कायव्यापारवत्तया सावद्ययोगपरिकलितत्वात्, 'नथि हु सक्किरियाणं अबंधगं किंचि इह अणुट्ठाण' मिति वचनात् ।
-आव० आ १। सू१ । टीका एवंभूतनय के अनुसार 'सावज्जजोगविरओ' शब्द का अर्थ करते हुए टीकाकार कहते है कि अवद्य अर्थात कर्म का बंध। जो कर्म के बंध सहित हो वह सावध, योग अर्थात व्यापार-सामर्थ्य वीर्य आदि । जिसका योग सावद्य हो वह सावद्ययोग तथा उससे निवृत्त सावद्य योगविरत । जपरिज्ञा से-प्रत्याख्यानपरिज्ञा से समस्त सावध योग का परिज्ञान होता है। इस सावद्य-योग की विरति कहाँ होती है? इस प्रश्न के उत्तर में टीकाकार कहते हैं कि जिनके सूक्ष्म-बादर मनो-वचन-काय के व्यापार निरुद्ध हो गये हैं समुच्छिन्नक्रिय अनिवृत्ति ध्यान में अधिरूढ़ हैं और जो शैलेशीत्व को प्राप्त हो गये हैं उनकी आत्मा सावद्ययोगविरत-सामायिक होती है।
__इस परिभाषा से अर्थात् कर्मबंध की परिभाषा से अप्रमत्त संयत आदि का भी व्यवच्छेद हो जाता है ! उनके मनोवाक्काय के व्यापार होने के कारण उनमें सावद्य योग की परिकल्पना होती है क्योंकि कोई भी सक्रिय जीव कर्म का अबंधक नहीं होता है ।
सावद्य की परिभाषाएँ--- (क) अवद्य-पापं सहावद्य न यस्य येन वा स सावद्यः।
--आव० आ १ } सू १ । मलय टीका पृ० ५५६ (ख) अवयं-मिथ्यात्वकषायनोकषायलक्षणं, सह अवद्य यस्य येन वा स सावद्यः ( मूल टीकानुसारेण व्याख्या)।
---आव० मलय टीका उक्त : मुलभाष्य गा १४६ (ग) एवंभूतो वदति) xxx। अवद्य-कर्मबंधः सहावद्य यस्य येन वा स सावद्यः।
-आव० मलय टीका उक्त : मूलभाष्य गा १४ (घ) तस्यावा तस्य कर्मापचये —सूय० श्रु १ । अ १ । उ २ ! सू २५ । टीका
'६६ १३ कर्म, क्रिया, आस्रव और वेदना की चौपदी
१ अग्निकाय की अपेक्षा
अगणिकाएणं भंते ! अहुणोजलिए समाणे महाकम्मतराए चेव, महाकिरियमहासव-महावेयणतराए चेव भवइ ; अहे णं समए समए वोक्कसिन्जमाणे योक्कसिज
"Aho Shrutgyanam"