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क्रिया-कौश यह निर्ग्रन्थ प्रवचन सत्य है, अनुत्तर है, केवल-अद्वितीय है, प्रतिपूर्ण है, संशुद्ध--- निर्दोष है, नैयायिक-न्याय से सिद्ध-प्रमाण से अबाधित है, मायाकर्तन-मायादिशल्य का निवारक है, सिद्धिमार्ग है, मुक्तिमार्ग है, निर्वाणमार्ग है, निर्याणमार्ग-पुनरागमन से रहित है, अवितथ-वास्तविक है, अविसन्धि–विच्छेद रहित है, सर्वदुःखप्रहीण- सकल दुःखों का निःशेष करने वाला मार्ग है।
__ ऐसे प्रवचन में स्थित जोव सिद्ध होते हैं, बुद्ध होते हैं, मुक्त होते हैं, परिनिर्वाण को प्राप्त करते हैं तथा सर्व दुःखों का अन्त करते हैं ।
'७३ ६ ३ संवृत अनगार अंतक्रिया करता है :--
संबुडे णं भंते ! अणगारे सिज्झा (बुज्झइ, मुञ्चइ, परिनिव्वाइ) जाव सव्वदुक्खाणमंतं करेइ ?
हंता ! सिज्झइ, जाव अंतं करेइ । से केण?णं भंते ?
गोयमा ! संवुडे अणगारे आउयवजाओ सत्तकम्मपगडीओ धणियबंधणबद्धाओ सिढिलबंधणबद्धाओ पकरेइ, दीहकालट्ठिश्याओ हस्सकालट्ठिश्याओ पकरेइ, तिव्वाणुभावाओ मंदाणुभावाओ पकरेइ, बहुप्पएसगाओ अप्पएसगाओ पकरेछ,
आउयं च णं कम्मं ण बंधइ, अस्सायावेयणिज्जं च णं कम्मं णो भुजो भुज्जो उवचिणाइ, अगाइयं च णं अणवदग्गं दीहमद्धं चाउरंतसंसारकंतारं वीईवयइ । से तेण?णं गोयमा ! एवं वुच्चइ-संवुडे अणगारे सिज्झइ जाव अंतं करेइ ।
--भग० श १ । उ १ । प्र ५८-५६ । पृ० ३८६-६० संवृत्त अणगार सिद्ध होता है यावत् सर्व दुःखों का अन्त करता है क्योंकि संवृत्त अणगार आयुकर्म को छोड़ कर गाँठ रूप से बँधी हुई सात कर्म-प्रकृतियों को शिथिल रूप से बन्धन करता है ; दीर्घकालीन स्थिति वाली कर्मप्रकृतियों को अल्पकालीन स्थिति वाली करता है ; तीव्रानुभाव वाली को मंदानुभाव वाली करता है ; बहु प्रदेशवाली को अल्प प्रदेशवाली करता है ; आयुकर्म को नहीं बाँधता है ; असातावेदनीय कर्म को बार-बार उपचय नहीं करता है ; अनादि--अनंत दीर्घमार्ग वाले चार गति रूप संसार-अटवी को उल्लंघ जाता है, इस कारण से ऐसा कहा गया है कि संवृत्त अणगार सिद्ध होता है यावत् सर्व दुःखों का अन्त करता है । ७३.६४ एजनादि क्रिया नहीं करने वाला जीव अन्तक्रिया करता है :
जीवे णं भंते ! सया समियं नो एयइ-जाव-नो तं तं भावं परिणमइ ? हंता, मंडियपुत्ता ! जीवे णे सया समियं-जाव-नो परिणमइ ।
"Aho Shrutgyanam"