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क्रिया-कोश
२३६ कइ भंते ! देवाणुप्पियाणं, अंतेवासिसयाई सिज्झिहिंति, जाव-अंतं करेहिंति ? तए णं समणे भगवं महावीरे तेहिं देवेहि भणसा पुढे तेसिं देवाणं मणसा चेव इमं एयारूवं वागरणं वागरेइ, एवं खलु देवाणुप्पिया ! मम सत्त अंतेवासिसयाई सिज्झिहिंति, जाव अंतं करेहिंति।
-भग० ५ । उ ४ । प्रे १५ । पृ० ४७६ ___ महाशुक्र देवलोक में, महासर्ग महा विमानवासी महाऋद्धिवाले यावत् महाभाग्यशाली दो देव श्रमण भगवान महावीर के पास प्रादुर्भूत हुए तथा उन्होंने मन ही मन से भगवान महावीर को वंदना-नमस्कार करके मन से ही प्रश्न पूछा कि हे भगवन् ! आपके कितने सत्त शिध्य सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होंगे यावत सर्व दुःखों का अन्त करेंगे।
श्रमण भगवान महावीर ने उन देवों को मन द्वारा ही उत्तर दिया कि हे देवानुप्रियो ! मेरे सात सौ शिष्य सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होगे यावत् सर्व दुःखों का अन्त करेंगे।
टीका-(प्र १४ पर ) 'अंतकरे चेव' ति भवच्छेदकरः स च दूरतरभवेऽपि स्याद् अत आह–'अंतिमसरीरिए चेव' त्ति चरमशरीर इत्यर्थः ।
७४ सदनुष्ठान क्रिया का उपदेश •७४.१ दुविहं. समिश्च मेहावी, किरियमक्वायमणेलिसंणाणी। आयाणसोयमतिवायसोयं जोगं च सव्वसो णच्चा ।।
-आया० श्रु १ ! अ६ । उ १ । गा १६ । पृ० २६ टोका-द्वे विधे प्रकारावस्येति द्विविधं किं तत्कर्म तच्चेर्याप्रत्ययं सांपरायिकञ्च तद्विविधमपि समेत्य ज्ञात्वा मेधावी सर्वभावज्ञः क्रियां संयमानुष्ठानरूपा कम्र्मोच्छेत्रीमनीटशीमनन्यसदृशीमाख्यातवान् किंभूतो ज्ञानी केवलज्ञानवानित्यर्थः किं वा परमाख्यातवानिति दर्शयति ! आदीयते कर्मानेनेत्यादानं दुःप्रणिहितमिन्द्रिय मादानश्च स्रोतश्च आदानस्रोतस्तज्ज्ञात्वा तथातिपातस्रोतश्चोपलक्षणार्थत्वादस्य मृषावादादिकमपि ज्ञात्वा तथायोगश्च मनोवाकायलक्षणं दुःप्रणिहितं सर्वशः सवः प्रकारैः कर्मबंधायेति ज्ञात्वा स्रोतक्रिया संयमलक्षणामाख्यातवानिति संबंधः ।
दो प्रकार के कर्मों को अर्थात् ऐापथिक तथा सांपरायिक कर्मों को जानकर ---सर्वभाव को जानने वाले मेधावी ने संयमानुष्ठान रूप कर्मों का छेदन करने वाली अनुपम क्रिया का उपदेश दिया है । आदानस्रोत, अतिपातस्रोत और योगों को सर्व प्रकार से कर्मबन्धन का स्रोत-आस्रव जानकर केवलज्ञानी ने संयमानुष्ठान (सदनुष्ठान ) क्रिया का उपदेश दिया है।
"Aho Shrutgyanam"