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क्रिया-कोश
प्रहार के हेतु से यदि जीव का छ: मास के अन्दर मरण हो तो प्रहारक को प्राणातिपातिकी क्रिया होती है लेकिन छः मास के बाद मरण हो तो प्रहारक को प्राणातिपातिकी किया नहीं होती है-ऐसा हार्द-भाव है। यह छ: मास के भीतर-बाहर का कथन व्यवहार-नय की अपेक्षा से प्राणा तिपातिकी क्रिया का उपदर्शन मात्र कराने के लिये कहा गया है; अन्यथा प्रहार के निमित्त से जब कभी मरण हो तो प्रहारक को तभी प्राणातिपातिकी क्रिया होती है ।
५ पुरुषवधिक काः--
पुरिसे णं भंते ! पुरिसं सत्तीए समभिधंसेज्जा सयपाणिणा वा, से असिणा छिदेज्जा तओ णं भंते ! से पुरिसे कइकिरिए ? गोयमा ! जावं च णं से पुरिसे तं पुरिसं सत्तीए समभिधंसेइ, सयपाणिणा वा, से असिणा सीसं छिदइ, तावं च णं से पुरिसे काइयाए, अहिगरणियाए--जाव पाणाइवायकिरियाए पंचहि किरियाहिं
आसन्नवहएण य अणवकखवत्तीए णं पुरिसवेरेणं पुढे ।
-भग० श १ । उ ८। प्र २७२ । पृ० ४०६ यदि कोई व्यक्ति अपने हाथ से किसी पुरुष को सशक्त भाले से भेदन करे या तलवार के द्वारा शिर का छेदन करे तो वह व्यक्ति कायिकी आदि पाँच क्रियाओं से स्पृष्ट होता है।
दूसरों के प्राणों के प्रति बेपरवाह और आसन्नवधक वह व्यक्ति पुरुष-वेर से स्पृष्ट होता है।
विश्लेषण :-यहाँ भाला फेंकने में, तलवार चलाने में जो काया से क्रिया हुई वह कायिकी; भाला, खड्ग आदि अधिकरणों का ग्रहण-आधिपत्य-प्रयोग वह आधिकरणिकी; भेदे जाने वाले या छेदे जाने वाले व्यक्ति के प्रति जो दुष्ट प्रणिधान-अध्यवसाय हुए-बह प्राद्वेषिकी; शरीर भेदन से ----शिरछेदन से जो पीड़ा तथा प्राण-वियोग होता है वह क्रमशः पारितापनिकी, प्राणातिपातिकी क्रिया है। अतः भेदन-छेदन से प्राण-वियोग करनेवाले व्यक्ति को कायिकी आदि पाँचों कियायें होती हैं ।
छेदन-भेदन से पुरुष को मारने वाला व्यक्ति आसन्नवधक होता है अर्थात पुरुष-वैर से वह व्यक्ति अनागत काल में किसी जन्म-जन्मान्तर में मारे जाने वाले पुरुष के द्वारा अथवा अन्य किसी जीव के द्वारामारा जाता है।
टीकाकार ने एक प्राकृत की गाथा उद्धृत की है जिसका आशय है कि जो व्यक्ति एक बार किसी का प्राणवध करता है वह व्यक्ति दूसरों से दस बार मारा जाता है ।
"Aho Shrutgyanam"