SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 36
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अजीव क्रिया--जिससे जीव पुद्गल समुदाय की कर्मरूप परिणति करे वह जीव को . अजीवक्रिया है। अजीव क्रिया के उदाहरण में ऐपिथिक और सांपरायिक क्रिया को बताया गया है । ( देखो क्रमांक १२) __शुद्ध देव-गुरु-धर्म की श्रद्धा से समदृष्टि जीव जो विनयादि व्यापार–क्रिया करता है वह सम्यक्त्व क्रिया है तथा सिद्धसेन गणि की टीका के अनुसार मोह के क्षयोपशम से होने वाले मोहशुद्ध कर्मदलिक के अनुभव-वेदन से होनेवाली प्रवृत्ति सम्यक्त्व क्रिया है । (देखिये क्रमांक ३६) यह क्षयोपशम से होनेवाली सम्यक्त्व क्रिया चौथे से सातवें गुणस्थान तक के जीवों को ही होती है.-ऐसा समझना चाहिए । मिथ्या देव-गुरु-धर्म की श्रद्धा से अथवा अतत्त्व-श्रद्धान से जीव के द्वारा किया गया व्यापार या क्रिया-मिथ्यात्वक्रिया है। यह क्रिया पहले व तीसरे गुणस्थान के जीवों को होती है । एक बात विशेष ध्यान में रखने की है कि सम्यक्त्वं और मिथ्यात्र क्रियाएँविरोधी क्रियाएँ हैं। एक समय में एक जीव के ये दोनों क्रियाएँ नहीं हो सकती हैं । जिस समय सम्यक्त्व क्रिया होती है उस समय मिथ्यात्व क्रिया नहीं हो सकती, जिस समय मिथ्यात्व क्रिया होती है उस समय सम्यक्त्व क्रिया नहीं हो सकती है । (देखिये क्रमांक '६४.११) यद्यपि तीसरे गुणस्थान का अभिवचन सम्यग-मिथ्याष्टि गुणस्थान है फिर भी वहाँ एक समय में एक ही क्रिया होनी चाहिए, मिश्र क्रिया नहीं हो सकती है ।। सापरायिक और ऐर्यापथिकी क्रियायें भी विरोधी क्रियाएँ हैं। ये दोनों क्रियाएँ भी एक जीव के एक समय में नहीं होती है । जिस समय सांपरायिकी क्रिया होती है उस समय ऐपिथिकी क्रिया नहीं हो सकती है, जिस समय ऐापथिकी क्रिया होती है उस समय सांपरायिकी क्रिया नहीं हो सकती है। (क्रमांक ६४ २.१) सकषायी जीव के सांपरायिकी क्रिया होती है, अकषायी जीव के ऐापथिको क्रिया होती है । ऐपिथिक क्रिया से दो समय की स्थितिवाले कर्म का बन्धन होता है तथा सांपरायिकी क्रिया से अन्तर्महूर्त अथवा तदुअधिक स्थिति वाले कर्म का बन्धन होता है। मिथ्यात्व क्रिया का तीन प्रकार से वर्णन मिलता है -~एक आरम्भिकी क्रिया पंचक के अन्तर्गत मिथ्यादर्शनप्रत्यायिकी (मिच्छादसणवत्तिया ) रूप में मिलता है ( देखो क्रमांक -१७ ), दूसरा सम्यक्त्व क्रियापंचक के अन्तर्गत मिथ्यात्व (मिच्छत्त) क्रिया के रूप में मिलता है (देखो क्रमांक ४० ), तथा सम्यक्त्व-मिथ्यात्वद्वयक के रूप में भी मिलता है ( देखो क्रमांक ६४.१ ) तथा अठारह पापस्थान के अन्तर्गत मिथ्यादर्शनशल्य (मिच्छादंसणसल्ल) के रूप में मिलता है। (देखो क्रमांक ६२ ) आरम्भिकी क्रियापंचक (आरम्भिकी, पारिग्रहिकी, मायाप्रत्ययिकी, अप्रत्याख्यान, मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी )-सबसे महत्वपूर्ण क्रियापंचक है। यह दण्डक के सभी [ 32 ] "Aho Shrutgyanam"
SR No.009528
Book TitleKriya kosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1969
Total Pages428
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy