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क्रिया-कोश '६४२२ ऐपिथिकी-साम्परायिकी क्रियाद्वयक और अनगार :. (क) अणगारस्स णं भंते ! अणाउत्तं गच्छमाणस्स वा चिट्ठमाणस्स वा निसीयमाणस्स वा तुयट्टमाणस्स वा अणाउत्तं वत्थं, पडिग्गह, कंबलं, पायपुंछणं गेण्हमाणस्स वा निक्खिवमाणस्स वा तस्स णं भंते ! किं इरियावहिया किरिया कजइ,संपराइया किरिया कजइ ? गोयमा ! नो इरियावहिया किरिया कजइ, संपराइया किरिया कज्जइ।
से केण?णं ? गोयमा ! जस्स णं कोहमाणमायालोभा वोच्छिन्ना भवंति तस्स णं इरियावहिया किरिया कजइ, नो संपराइया किरिया कजइ ; जस्स णं कोहमाणमायालोभा अवोच्छिन्ना भवंति तस्स णं संपराइया किरिया कज्जइ नो इरियावहिया किरिया कजद ; अहासुत्तं रीयमाणस्स इरियावहिया किरिया कजइ, उस्सुत्तं रीयमाणस्स संपराइया किरिया कजइ, से णं उस्सुत्तमेव रीयइ से तेण?णं।
-भग० श ७ । उ १ । प्र १८ । पृ० ५१० उपयोग-यत्नारहित गमन करते हुए, खड़े होते हुए, बैठते हुए, सोते हुएं तथा यत्नारहित वस्त्र, पात्र, कंबल, पादपोंछन (रजोहरण) को ग्रहण करते हुए, रखते हुए अनगार को ऐपिथिको क्रिया नहीं होती है, सांपरायिकी क्रिया होती है। क्योंकि जिसके क्रोधमान-माया-लोभ व्युच्छिन्न-क्षीण हो गये हैं उसके ऐर्यापथिकी क्रिया होती है, सांपरायिकी क्रिया नहीं होती है, जिसके क्रोध-मान-माया-लोभ अव्युच्छिन्न-क्षीण नहीं हुए हैं उसके सांपरायिको क्रिया होती है, ऐपिथिको क्रिया नहीं होती है !
सूत्र के अनुसार चलते हुए साधु को ऐ-पथिकी क्रिया होती है, सूत्र के विपरीत चलते हुए साधु को सांपरायिकी क्रिया होती है। जो अनगार सूत्रविरुद्ध चलता है, उसके राग-द्वेष क्षीण नहीं हुए हैं। इसलिए यह कहा गया है कि जिसके क्रोध-मान-माया-लोभ क्षीण नहीं हुए हैं उसके सांपरायिकी क्रिया होती है।
(ख) संवडस्स णं भंते । अणगारस्स आउत्तं गच्छमाणस्स, जाव आउत्तं तुयट्रमाणस्स, आउत्तं वत्थं, पडिग्गह, कंबलं, पायपुंछणं गेण्हमाणस्स वा, निक्खिवमाणस्स वा तस्स गं भंते ! किं इरियावहिया किरिया कजइ, संपराइया किरिया कजइ ?
गोयमा ! संवुडस्स णं अणगाररस जाव तस्स णं इरियावहिया किरिया कजइ, णो संपराइया।
से केण?णं भंते ! एवं वुच्चइ-संवुडस्स णं जाव णो संपराइया किरिया कज्जा ?
गोयमा ! जस्स णं कोहमाणमायालोमा वोच्छिन्ना भवंति तस्स णं इरियावहिया किरिया कजइ, तहेव-जाव--उस्सुत्तं रीयमाणस्स संपराइया किरिया कज्जइ,
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